चिकित्सा का अधिकारी विक्षिप्त है मूढ़ नहीं
मैं महिलाओं की एक संस्था से महासचिव के रूप में जुड़ी हुई हूँ काफ़ी समय से, जो महिलाओं को उनके स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने का प्रयास कर रही है | इसके लिये हम जगह जगह हैल्थ चैकअप कैम्प्स लगाते हैं | मैं देखती हूँ कि कई महिलाओं को जब किसी दवा अथवा परहेज़ अथवा सन्तुलित आहार अथवा व्यायाम आदि के विषय में बताया जाता है तो उसका अनुसरण करने में वे असमर्थता व्यक्त करती हैं, क्योंकि अपनी जीवन शैली में किसी प्रकार का भी परिवर्तन - भले ही वह उनके तथा उनके परिवार के स्वास्थ्य के लिये हो - उन्हें अत्यन्त कष्टप्रद लगता है | ऐसे ही मेरे चाचा डाक्टर थे | अपने बचपन में जब कभी उन्हें मरीज़ों पर बिगड़ते हुए देखती थी तो सोचती थी कि चाचा ऐसा क्यों करते हैं ? उदाहरण के लिये कभी कोई मरीज़ कहता “अजी डागदर साब मन्ने तो अग्गरवाल डागदर कू दिखाया हा, वो कै रिया हा अक यो दवा तो फलाँ बीमारी की है | अजी तमने ठीक से देक्खा भी हा अक नईं ?” या ऐसा ही कुछ भी बेवक़ूफ़ीभरा सवाल | चाचा उन पर गुस्सा करते और कहते कि मुझ पर विश्वास है तो आओ मेरे पास, नहीं तो शहर में डाक्टरों की कमी नहीं है | बड़े होने पर समझ आया कि चाचा का ऐसा करना उचित था | मेरी अपनी एक परिचित महिला हैं जिन्हें बचपन से ही बार बार हाथ धोने की तथा छुआ छूत की भयंकर बीमारी है जिसके कारण और भी बहुत सी विकृतियाँ उनके स्वभाव में आ गई हैं | लेकिन हर मनश्चिकित्सक को परम मूर्ख समझती हैं इसलिये किसी मनोरोगविशेषज्ञ से परामर्श करना नहीं चाहती, और रोग बढ़ता जा रहा है | मेरे पति डॉ. दिनेश शर्मा आयुर्वेदाचार्य और वास्तुविद हैं | मेरे एक मित्र एक बार अपनी पत्नी को लेकर उनके पास आए किसी रोग के इलाज़ के लिये जो दो बार आने के बाद ही घर बैठ गईं | क्योंकि डॉ. साहब ने तो व्रत रखने के लिये मना किया था, और उन्हें तो सप्ताह में कम से कम तीन दिन व्रत रखना ही किसी न किसी देवी देवता के नाम का | इसी प्रकार एक बार एक वास्तु के क्लाइंट पर उन्हें गुस्सा होते देखा, कारण था कि जहाँ कोई ढाँचा नहीं बनवाना था, मना करते करते वहाँ बनवा लिया था और वास्तु का सारा बैलेंस गड़बड़ा गया था | तब डॉक्टर साहब के पास भागे आए कि अब क्या करें ? इस पर मेरे पति का कहना था कि यदि उनके बताए अनुसार नहीं चल सकते तो किसी अन्य के पास चले जाएँ परामर्श के लिये, उनके पास न आएँ | इस प्रकार की बातों से यही समझ आता है कि यदि डाक्टर पर, उसकी दी हुई दवा पर विश्वास ही नहीं होगा, या उसके बताए अनुसार दवा और पथ्य नहीं लिया जाएगा तो मरीज़ को आराम कैसे होगा ? रोग से मुक्ति पाने की सबसे पहली शर्त है कि जिस डाक्टर वैद्य हक़ीम के पास जाएँ उसके इलाज़ पर पूर्ण आस्था हो तथा उसके हाथों आत्मसमर्पण की भावना मन में हो, ताकि वह आपका जो भी इलाज़ करे या जिन नियमों का पालन आपसे करने को कहे वह आप पूर्ण मनोयोग से कर सकें, तभी वह भी पूर्ण मनोयोग से इलाज़ कर सकेगा | यही कारण है कि जो लोग स्वयं को किसी डाक्टर से कम नहीं समझते प्रायः डाक्टर लोग भी उन्हें मूर्ख समझकर उनसे ठीक से बात करना पसंद नहीं करते | प्रस्तुत लेख में चर्चा का विषय यही है कि विक्षिप्त की चिकित्सा तो की जा सकती है, पर मूर्ख का क्या इलाज़ हो ?
प्रत्येक व्यक्ति युद्ध करता हुआ ही अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है | प्राणी का समस्त जीवन ही युद्धमय है | एक प्रकार से देखा जाए तो माँ के गर्भ में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिये, पनपने के लिये, यहाँ तक कि माँ के गर्भ से बाहर आने के लिये भी जीव को निरन्तर संघर्ष ही करते रहना पड़ता है | अतः युद्ध का आरम्भ तो माँ के गर्भ से ही हो जाता है | इस युद्ध से ही शरीर, इन्द्रिय और मन की विचित्र शक्ति की अभिव्यक्ति होती है | यदि मनुष्य में विजय प्राप्ति व आत्मप्रतिष्ठा की कामना होगी, उसमें स्वाभिमान होगा, तभी उसमें विचारशक्ति का विकास होगा | तभी वह कर्म में प्रवृत्त होगा | परिवार, समाज, जातीयता, राष्ट्रवाद आदि की सृष्टि इसी विचारशक्ति तथा कर्म का परिणाम होती है | इसी के कारण जीवों में आत्मीयता का बन्धन दृढ़ होता है | जिनमें आत्मरक्षा और आत्मप्रतिष्ठा की शक्ति अर्थात जीवनी शक्ति नहीं होती वे सृष्टिप्रवाह में पीछे रह जाते हैं या लुप्त हो जाते हैं |
इस जगत का विधान ही ऐसा है कि हर छोटा जीव बड़े जीव का, हर निर्बल सबल का आहार होता है | समान बली प्राणियों में भी परस्पर संग्राम चलता ही रहता है | जो विजय प्राप्ति के लिये जितना अधिक साधन संपन्न होता है उसका उतना ही प्रभाव अधिक होता है | इस आत्मप्रतिष्ठा और दूसरों को पराजित करने की चेष्टा में जगत में जो ज्ञान विज्ञान की उत्पत्ति होती है, जो प्राकृतिक शक्तियाँ मनुष्य को प्राप्त होती हैं, जो नए नए आविष्कार होते हैं, जो शिल्प वाणिज्य आदि का विस्तार होता है इस सबके मूल में मनुष्य का जीवन संग्राम ही तो होता है | एक आदर्श से दूसरे आदर्श का युद्ध, एक विचार से दूसरे विचार का युद्ध, मत से मतान्तर का युद्ध – यही संसार के प्रवाह का सनातन नियम है और इसी से सत्यं शिवम् सुन्दरं का विकास हुआ है |
क्रमशः...