प्रायः लोगों को ऐसा कहते सुना होगा कि कुछ लोगों का जन्म केवल अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए ही होता है | स्वार्थों की सिद्धि अच्छी बात है – यदि उस स्वार्थ में किसी अन्य की भलाई निहित हो या आत्मोन्नति के मार्ग में सहायक हो | संसार में कोई सम्बन्ध ऐसा नहीं जिसमें स्वार्थ न निहित हो | यहाँ तक कि माता पिता भी अपनी सन्तान पर अपना ममत्व लुटाते हैं तो उसमें भी उनका स्वार्थ होता है – और वह स्वार्थ है उन्हें आनन्द की अनुभूति – उन्हें अपना जीवन धन्य लगने लगता है | लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब यही स्वार्थपरता अँधा मोह बन जाती है | उस समय व्यक्ति अपनी उसी सन्तान को अपने आपसे बाँध कर रखना चाहता है | ऐसी स्वार्थपरता विनाश का कारण बनती है |
देखा जाए तो स्वार्थ और निस्वार्थ में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं | जब हम अपनी सारी इच्छाओं का – सारी महत्त्वाकांक्षाओं का केन्द्रबिन्दु केवल अपने संकुचित व्यक्तित्व को बना लेते हैं तब वह स्वार्थ कहलाता है, और वही जब हम अपनी इच्छाओं और महत्त्वाकांक्षाओं के केन्द्र को विस्तृत कर देते हैं तब वही निस्वार्थ भावना कहलाती है | उस विस्तृत क्षेत्र में कुछ भी आ सकता है – हमारा परिवार, समाज, देश, विश्व, समस्त चराचर जगत – कुछ भी… जब हम अपने स्वार्थ के केन्द्र को विस्तार देने लगते हैं तब धीरे धीरे उस स्वार्थ का नाश होने लगता है और हमारे समस्त कर्म निस्वार्थ होने लगते हैं… और तब किसी भी प्रकार के दुष्कर्म अथवा दुर्भावना के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता… क्योंकि तब हम व्यक्ति न रहकर समष्टि की ओर बढ़ने लगते हैं… और यह सत्य है कि आत्मोन्नति के लिए स्वार्थ का निस्वार्थता में परिणित होना नितान्त आवश्यक है…