इतने विशाल संसार में हर पल कहीं न कहीं आँधी, तूफ़ान, बाढ़, भूकम्प, हिमस्खलन, अग्निकाण्ड आदि न जाने कितने प्रकार के विध्वंस होते रहते हैं | हर पल अनुभव होते रहने वाले उत्पत्ति-विनाश, जय-पराजय, हानि-लाभ, जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख जितने भी द्वन्द्व हैं उन सबसे हमारा नित्य परिचय है | यदि निरपेक्ष भाव से विचार किया जाए तो दुःख के बिना सुख, एक पक्ष की पराजय के बिना दूसरे पक्ष की जीत, एक की हानि के बिना दूसरे का लाभ हो ही नहीं सकता | ये समस्त द्वन्द्व, ये समस्त युद्ध हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं | किन्तु जब इस युद्ध की विकराल नग्न मूर्ति हमारे समक्ष प्रकट होती है और उसके अनिच्छित अनिष्टकारक परिणाम उन स्वजनों को खा डालना चाहते हैं जिन्हें हम अत्यधिक सम्मान करते हैं, जिन्हें हम सबसे अधिक प्यार करते हैं, जिन पर हमें अगाध श्रद्धा होती है, तब हमारा हृदय भय से, वेदना से, दुःख से व्याकुल हो उठता है | उस समय हमारी कर्तव्य बुद्धि, हमारी धीरता और स्थिरता नष्ट हो जाती है और हमारी विचार शक्ति मोहग्रस्त हो शून्य हो जाती है | यही हमारी कायरता का परिचायक है |
यही स्थिति कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन की हुई थी | न जाने कितने योद्धा अर्जुन के प्रचण्ड रण कौशल के समस्त परास्त हो चुके थे | उनकी अब तक की विजय पताका के नीचे न जाने कितने परम्परागत, सामाजिक व साम्प्रदायिक मूल्य दबे पड़े थे | न जाने कितने कुलों का विध्वंस करके उनके विजय मन्दिर की नींव उठी थी | पर विजयोन्मत्त अर्जुन के हृदय में कभी ऐसी गम्भीर वेदना, ऐसी चुभन, ऐसी टीस नहीं उत्पन्न हुई थी | इस सबके लिये उनके पास अवकाश ही नहीं था | फिर आज यह वेदना क्यों थी ? आज यह भय क्यों था ? इस क्षोभ का, इस अपराधबोध का कारण क्या था ? इस सबका कारण थे उनके अपने स्वजन | आज तक के युद्धों में जिन कुलों का, जिन परम्पराओं का, जिन सम्प्रदायों का, जिन सामाजिक मूल्यों का विध्वंस हुआ था उससे अर्जुन का कोई व्यक्तिगत सम्बन्ध अथवा कोई नाता नहीं था | वे उनके अपने नहीं थे – पराए थे | उन्हें तो बस उन पर विजय प्राप्त करनी थी – जो उन्होंने की भी थी | लेकिन अब जो युद्ध वे करने जा रहे थे वह युद्ध उनके अपने परिजनों के साथ था | अपने बन्धु बान्धवों के साथ था | उन्हें उन भीष्म पितामह के साथ युद्ध करना था जिनकी गोद में वे खेल कूद कर बड़े हुए थे |
उन्हें उन आचार्य द्रोण से युद्ध करना था जिनकी शिक्षा और कृपा से वे संसार के सबसे महान धनुर्धर बने थे | उन महाराज धृतराष्ट्र और महारानी गान्धारी की सन्तानों को पराजित करना था जो उनके स्वर्गवासी पिता के सहोदर थे | उस युद्ध में दोनों ही पक्षों में उनके आत्मीय स्वजन थे | यही कारण था कि आज उन्होंने गम्भीरतापूर्वक इस भयावह स्थिति पर विचार किया था कि विजय चाहे किसी भी पक्ष की हो, हारने वाला पक्ष भी तो उनके आत्मीयों का ही होगा | युद्ध में मरने वाले भी तो उनके अपने ही होंगे | इस युद्ध में लोप तो उनके अपने ही कुल, धर्म और जाति का होगा | जिस स्वधर्म – क्षात्र धर्म – का वे चिरकाल से पूर्ण निष्ठा से पालन करते आ रहे थे वही उन्हें आज अधर्म लगने लगा था | वे किंकर्तव्यविमूढ़ और धर्मसम्मूढ़चेता होकर भयानक यन्त्रणा का अनुभव कर रहे थे | एक विमोहित चित्त वाले के लिये स्व और पर में कितना अन्तर होता है |
ईश्वर की माया से भ्रमित मनुष्य यह भूल जाता है कि युद्ध तो प्रत्येक क्षण उसके साथ है | उसके स्वयं के विचारों में ही निरन्तर युद्ध चलता रहता है | तब फिर वह बाहर के युद्धों से स्वयं को कैसे अलग कर सकता है ? युद्ध की भीषणता और अनिष्टकारी परिणामों का अनुभव होते हुए भी युद्ध से पूर्ण रूप से विलग नहीं हुआ जा सकता | अतः आदर्श का अनुसरण करते हुए चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिये, समाज में शान्ति स्थापना के लिये, उत्तरोत्तर विकास के लिये तथा आध्यात्मिक सभ्यता के विकास के लिये युद्ध आवश्यक हो जाता है | जैसे जैसे मनुष्य का हृदय शुद्ध होता जाता है, उसकी बुद्धि भी उतनी ही विकसित होती जाती है | तब उसमें कामना, वासना, तृष्णा, अहंकार सब नष्ट होकर युद्ध के प्रति स्वतः ही वैराग्य उत्पन्न हो जाता है | किन्तु तब उसके मन में एक नए युद्ध का सूत्रपात होता है – कर्मप्रवृत्ति के साथ सन्यास प्रवृत्ति का युद्ध, और युद्ध प्रवृत्ति के साथ त्याग की प्रवृत्ति का युद्ध | युगों युगों से संसार में विचारशील पुरुषों के साथ ऐसा ही होता आया है | इस प्रकार किंकर्तव्यविमूढ़ होकर ये विचारशील पुरुष अन्ततोगत्वा भगवान की ही शरण जाते हैं, और इस प्रकार उनका भ्रम दूर होकर उन्हें दिशा ज्ञान मिलता है |
अर्जुन के साथ भी यही हुआ था | अपने स्वजनों के, आत्मीयों के, अपने कुल के, अपनी परम्पराओं मान्यताओं व मूल्यों के विध्वंस की कल्पनामात्र से ही वे रोमांचित हो गए, किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए – युद्ध करते हैं तो नाश है, नहीं करते हैं तो आत्मसत्ता लुप्त होती है – एक ओर कुआँ दूसरी ओर खाई | क्या करें क्या न करें ? “हे कृष्ण इन युयुत्सु स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं, मुख सूखा जाता है, मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच होता है, हाथ से गाण्डीवं गिरा जाता है, त्वचा में जलन होती है, तथा मन भ्रमित होने के कारण खड़ा रहने में भी असमर्थता का अनुभव कर रहा हूँ | यदि ये लोग भी मुझ पर आक्रमण करें तो भी, अथवा तीन लोक के राज्य के लिये भी मैं इन्हें मारना अथवा इनके साथ युद्ध नहीं करना चाहता, फिर क्या मैं इस पृथिवी के लिये इनसे युद्ध करूँगा?” (गीता १/२८-३५) अर्जुन जानते थे कि उनके वे स्वजन आततायी थे, लोभी थे, कुल के नाशक तथा मित्र विरोधी थे, किन्तु फिर भी वे उन्हें मारना नहीं चाहते थे | धनुष छोड़कर बैठ जाते हैं | और अन्त में किंकर्तव्यविमूढ़ हो कृष्ण की शरण जाते हैं “कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढ़चेत:, यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे, शिष्यस्तेsहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् |” (२/७) – कायरता रूपी दोष से उपहत स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिये क्या कल्याणप्रद है | मैं आपका शिष्य आपकी शरण में हूँ, कृपया मेरा मार्गदर्शन करें | और तब मुस्कुराते हुए श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं “अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे, गतासूनगतासूँश्च नानुशोचन्ति पंडिता: |” (२/११) – बातें तो तू विद्वानों जैसी करता है और शोक उनके विषय में करता है जिनके विषय में नहीं करना चाहिये | जबकि ज्ञानी पुरुष जीवित अथवा मृत किसी विषय में भी शोच नहीं करते |
अब यहाँ पुनः एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि कृष्ण के लिये तो अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही समान थे, फिर उन्होंने यह पक्षपात क्यों किया कि दुर्योधन के साथ तो अपनी सेना भेज दी और स्वयम् अर्जुन के रथ का सारथि बनकर उनका मार्गदर्शन किया ? अपने दिव्य गीता ज्ञान से उनके मन का विभ्रम दूर किया ? इस प्रश्न के उत्तर के लिये हमें विस्तार में जाना होगा |
संसार में कोई भी कार्य अहेतुक नहीं होता | प्रत्येक कार्य का कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है | संसार में प्रत्येक प्राणी का जन्म भी किसी विशेष प्रयोजन से ही होता है | जब तक उसका वह प्रयोजन पूर्ण नहीं हो जाता उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता | भले ही उस प्रयोजन को पूर्ण करने के लिये, उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उसे कितनी ही बार इस जन्म मरण के चक्र में भ्रमण करना पड़े | यह भी सत्य है कि जगत में सुख दुःख दोनों का समान अस्तित्व है | जब तक दोनों की ही अनुभूति नहीं हो जाती तब तक कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता | किन्तु मनुष्य मात्र सुख की ही अभिलाषा करता है | इसका कारण है तत्वज्ञान के अभाव में, यथार्थज्ञान के अभाव में, सत्यज्ञान के अभाव में उसका भ्रमित हो जाना | इसी तत्वचिन्तन के लिये, सत्य की शोध के लिये हमारे ऋषि मुनियों ने घोर तपस्या की | मानव का समस्त आध्यात्मिक प्रयास आत्मा परमात्मा आदि इन्द्रियातीत तत्वों का सन्देहरहित स्पष्ट और अविचलित शोध करने का ही रहा | पर यह बोध हठात् ही नहीं हो जाता | इसके तीन सोपान होते हैं – श्रवण अर्थात किसी तत्ववेत्ता आचार्य के उपदेशों का श्रवण, मनन अर्थात उन उपदेशों का चिंतन और निदिध्यासन अर्थात मनन की परिपक्व अवस्था “आगमेनानुमानेंन ध्यानाभ्यासरसेन च, त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम् |” (योगसूत्र)
हम सब ही किसी न किसी स्तर पर असामान्य मनोवृत्ति रखते हैं | ईश्वर की महाशक्ति त्रिगुणमयी माया हमें आवृत्त कर देती है | बुद्धि पर माया का आवरण आ जाता है और हम सत्य-असत्य नित्य-अनित्य आदि का भेद नहीं जान पाते | यह असामान्यता भी दो प्रकार की होती है – एक वे जो स्वयं को महाज्ञानी, महाबाली समझते हैं और इसी अभिमान के मद में चूर हो अनाधिकार चेष्टा भी कर जाते हैं | तामसी वृत्ति की प्रधानता होने के कारण कर्तव्य कर्मों से ध्यान हटाकर निषिद्ध कर्मों की ओर आकृष्ट होते हैं | (गीता ३/२७, ९/१२, १६/४) पाखण्ड, घमण्ड, अभिमान, क्रोध, कठोर वाणी और अज्ञान इन आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए लोगों के लक्षण हैं | ऐसे मूर्ख लोग जगत का नाश ही करते हैं | ऐसे मूढ़ तामसी मनोवृत्ति वाले पुरुष ईश्वर को प्राप्त न होकर अधोगति को प्राप्त होते हैं | (गीता १६/२०) दुर्योधन इसी श्रेणी में आते हैं |
दूसरी ओर सत्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को प्राप्त होते हैं | रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य अर्थात मनुष्यलोक में ही रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं | किन्तु तमोगुण में कार्यरूप निद्रा प्रमाद और आलस्यादि में स्थित हुए तामस पुरुष अधोगति को प्राप्त होते हैं | (गीता १४/१७,१८) अर्जुन इस श्रेणी में आते हैं |
अर्जुन के इसी सत्व-रज गुण प्रकृति के कारण कृष्ण ने उन्हें गीताज्ञान देना उचित समझा | क्योंकि केवल तमस से घिरा होने के कारण दुर्योधन मूढ़मति हो रहा था जबकि अर्जुन भ्रमित अवश्य थे लेकिन तमसबुद्धि नहीं थे… विक्षिप्त थे किन्तु मूढ़ नहीं थे…