सावन का महीना आते ही अपने पुराने दिनों की याद ताज़ा हो आती है | कई रोज़ पहले से पिताजी उत्साह में भर घर सर पर उठा लिया करते थे “अरे भई मास्टरनी जी (हमारी माँ को पिताजी मास्टरनी जी बुलाते थे) पूनम की चाचियों के चूड़ियों के नाप तो लाकर दो | और हाँ वो लाली और सरसुती की चूड़ियों का माप भी ले आना | अच्छा छोड़ो आपको तो फुर्सत ही कहाँ इन सब कामों के लिए, हम ही जाकर ले आते हैं…” और पहुँच जाते पहले बिब्बी यानी अपनी बड़ी बेटी हमारी बड़ी बहन के पास और उनकी एक चूड़ी ले आते, फिर सरसुती (सरस्वती) यानी हमारी बुआ की चूड़ी ली जाती और फिर दोनों चाचियों की एक एक चूड़ी ले आते और हमें साथ में ले पहुँच जाते चूड़ी वाली दूकान पर | उन दिनों शहर में एक ही बड़ी दूकान ऐसी थी जिस पर चूड़ी के साथ साथ लड़कियों की ज़रूरत का हर सामान मिल जाया करता था | बस अपनी पसन्द से चूड़ियाँ ख़रीद लाते | फिर सुन्दरलाल ताऊ जी की दूकान से घेवर और फेनी लाए जाते और माँ घर पर ही उन्हें पागती | फिर तीज से एक दो रोज़ पहले चारों घरों में चूड़ी और घेवर फेनी पहुँचाए जाते | माँ को तो उत्साह था ही इन सब कामों का – आख़िर तीज तो होता ही औरतों का त्यौहार है, पर पिताजी का भी उत्साह देखते ही बनता था | साथ में चाचियाँ, बिब्बी और बुआ भी साल भर इंतज़ार करती थीं इस अवसर का और जब उन्हें उनकी चूड़ियाँ और माँ के हाथों का पगा घेवर फेनी मिल जाता तो सबकी ख़ुशी देखते ही बनती थी |
उधर मामा जी आते संभल से माँ के लिए और हम सबके लिए चूड़ी कपड़े घेवर फेनी वगैरा लेकर – यानी सिधारा लेकर | कितनी धूम रहती थी त्यौहार की | सादे लोग थे, सादे तरीक़े से त्यौहार मनाते थे | न अधिक कुछ लिया दिया जाता था न किसी तरह का कोई दिखावा ही होता था | लड़कियों को अपनी पसन्द की थोड़ी चूड़ियाँ मिल गईं और एक जोड़ा कपड़े और एक जोड़ी सैंडल मिल गए तो मज़ा आ गया | लड़कों को भी उनकी पसन्द के कपड़े और जूते मिल गए तो और क्या चाहिए | न शगुन के लिफ़ाफ़े लिए दिए जाते थे न तरह तरह की गिफ्ट्स | घर में ही पकवान बनाए जाते थे | पर उस सादगी में भी जो मस्ती आती थी – त्यौहार का जो मज़ा आता था – वो आज बहुतेरे ताम झाम के बाद भी नहीं आने पाता | इसी सब में इतनी चहल पहल हो जाती थी – और कई दिनों तक रहा करती थी | सारी चहल पहल के बीच मीठी नोक झोंक भी चलती रहती थी | और साल भर त्यौहार लगे ही रहते थे तो साल भर ही इस तरह के उत्सव चलते रहते थे |
मसलन, माँ घेवर फेनी पागने बैठतीं तो पिताजी भी साथ देने के लिए बैठ जाते और बार बार कुछ ऐसा कर बैठते कि माँ का काम बिगड़ जाता | माँ नकली गुस्सा दिखातीं “मैंने बोला न हट जाओ, काम बिगाड़ने पर लगे हो… हटो यहाँ से…” और पिताजी का हाथ खींच कर उन्हें वहाँ से हटाने की कोशिश करतीं तो पिताजी भी भूरी आँखों से हँसते हुए बोलते “लो जी बिटिया रानी देख लो… शराफ़त का तो ज़माना ही नहीं है… अरे हम तो इनकी मदद कर रहे थे और ये हैं कि हमें रसोई से धक्का ही दिए दे रही हैं… चलो जी कैरम निकालो… हम दोनों बैठकर कैरम खेल ते हैं…” और उसी तरह मीठी सी हँसी हँसते हुए बाहर आ जाते और माँ लग जातीं अपने काम में तसल्ली से | उसके बाद जब चाची के पास उनका सामान लेकर जाते तब माँ और पिताजी दोनों अपनी नोक झोंक की बातें उन्हें सुनाते और वो हँसती रहतीं | भला आज के रेडीमेड के ज़माने में इन सब ठिठोलियों का मज़ा कहाँ ? और फिर आज समय भी किसके पास है इस तरह की हँसी ठिठोलियों के लिए ?
खैर, तो बात चल रही सावन की और हरियाली तीज की | यों तो सारा सावन ही बागों में और घर में लगे नीम और आम के पेड़ों पर झूले लटके रहते थे और लड़कियाँ गीत गा गाकर उन पर झूला करती थीं | पर तीज के दिन तो एक एक घर में सारे मुहल्ले की महिलाएँ और लड़कियाँ हाथों पैरों पर मेंहदी की फुलवारी खिलाए, हाथों में भरी भरी चूड़ियाँ पहने सज धज कर इकट्ठी हो जाया करती थीं दोपहर के खाने पीने के कामों से निबट कर और फिर शुरू होता था झोंटे देने का सिलसिला | दो महिलाएँ झूले पर बैठती थीं और बाक़ी महिलाएँ गीत गाती उन्हें झोटे देती जाती थीं और झूला झूलने के साथ साथ चुहलबाज़ी भी चलती रहती | सावन के गीतों की वो झड़ी लगती थी कि समय का कुछ होश ही नहीं रहता था | पुरुष भी कहाँ पीछे रहने वाले थे ? वे भी जबरदस्ती करके इस हुल्लड़ में शामिल हो जाया करते और झोटे देते देते हल्की फुल्की चुहल भी चलती रहती | और किसी की नई नई शादी हुई हो तब तो फिर उस भाभी या उस जीजा के ही पीछे सारे लड़के लड़कियाँ पड़ जाया करते और बदले में बड़े बुजुर्गों की मीठी झिड़की भी सुना करते “अरे क्यों तंग कर रहे हो बेचारों को…” वक़्त जैसे ठहर जाया करता था इन मादक दृश्यों का गवाह बनने के लिये |
बहरहाल, सबसे पहले तो इस पर्व की बधाई | श्रावण मास में जब समस्त चराचर जगत वर्षा की रिमझिम फुहारों में सराबोर हो जाता है, इन्द्रदेव की कृपा से जब मेघराज मधु के समान जल का दान पृथिवी को देते हैं – और उस अमृतजल का पान करके जब प्यासी धरती की प्यास बुझने लगती है – तब हरे घाघरे में लिपटी धरती अपनी इस प्रसन्नता को वनस्पतियों के लहराते नृत्य के माध्यम से अभिव्यक्त करने लगती है – जिसे देख जन जन का मानस मस्ती में झूम झूम उठता है – तब उस उल्लास का अभिनन्दन करने के लिये – उस मादकता की जो विचित्र सी अनुभूति होती है उसकी अभिव्यक्ति के लिये – “हरियाली तीज” अथवा “मधुस्रवा तीज” का पर्व मनाया जाता है | “मधुस्रवा अथवा मधुश्रवा” शब्द का अर्थ ही है मधु अर्थात अमृत का स्राव यानी वर्षा करने वाला | अब गर्मी से बेहाल हो चुकी धरती के लिए भला जल से बढ़कर और कौन सा अमृत हो सकता है ? वैसे भी जल को अमृत ही तो कहा जाता है |
तो एक बार पुनः अमृत की वर्षा करने वाली इस मधुश्रवा तीज की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत हैं इसी अवसर पर पुछले वर्ष लिखी गई कुछ पंक्तियाँ…
आओ मिलकर झूला झूलें ।
ऊँची पेंग बढ़ाकर धरती के संग आओ नभ को छू लें ।।
कितने आँधी तूफाँ आएँ, घोर घनेरे बादल छाएँ ।
सबको करके पार, चलो अब अपनी हर मंज़िल को छू लें ।।
हवा बहे सन सन सन सन सन, नभ से अमृत बरसा जाए ।
इन अमृत की बून्दों से आओ मन के मधुघट को भर लें ।।
ऊदे भूरे मेघ मल्हार सुनाते, सबका मन हर्षाते ।
मस्त बिजुरिया संग मस्ती में भर आओ हम नृत्य रचा लें ।।
हरा घाघरा पहने नभ के संग गलबहियाँ करती धरती ।
आओ हम भी निज प्रियतम संग मन के सारे तार जुड़ा लें ।|
बरखा रानी छम छम छम छम पायल है झनकाती आती ।
कोयलिया की पंचम के संग हम भी पियु को पास बुला लें ।।
सावन है दो चार दिनों का, नहीं राग ये हर एक पल का ।
जग की चिंताओं को तज कर मस्ती में भर आज झूम लें ।।