भान है मुझे / मैं ही हूँ जीवन की धुरी
मेरे चलने से ही तो भरती है / जीवन में लय और गति |
रुक जाऊँ तनिक थककर / ठिठक जाऊँ
तो रुक जाती हैं गतिविधियाँ जीवन की सारी |
भान है मुझे अपनी शक्ति का / मैं हूँ हिमगिरि की भांति दृढ़
बड़े से बड़े तूफानों में भी खड़ी रहती हूँ अविचल |
रहती हूँ सावधान / कहीं गिर न जाऊँ खाकर ठोकर
मेरे गिरने से / गिर जाएँगी भरभराकर आदर्श की दीवारें भी सारी
क्योंकि हो चुकी हैं वे खोखली / झेलकर सम्वेदनशून्य मान्यताओं के दंश |
भान है मुझे / मैं ही हूँ नैतिकता / जो रहती है बन्द दरवाजों के पीछे |
रहती हूँ सावधान / कहीं भटक न जाऊँ लक्ष्य से
अन्यथा चरमरा कर खुल जाएँगे / सिद्धान्तों के सारे बन्द द्वार |
क्योंकि मैं हूँ नारी / उठाए हुए सारे संसार के आदर्शों का बोझ / अपने कन्धों पर
चढ़ जाती हूँ पहाड़ों की ऊँची से ऊँची चोटियाँ भी
और गाढ़ आती हूँ अपने नाज़ुक हाथों से / अपनी विजय पताका |
पहुँच जाती हूँ आकाश की भी सीमाओं के पार / दूर अंतरिक्ष में
जीवन की चिन्ता किये बिना / क्योंकि परिचित हूँ तन की क्षणभंगुरता से |
लगाती हूँ सागर की गहराइयों में गोते / इठलाती हुई / लहराती हुई |
उड़ती हूँ साथ खगचरों के / तो सहोदर से लगते हैं सारे जलचर मुझे |
सारा ब्रह्माण्ड बन जाता है साक्षी / साकार होते मेरे सपनों का |
तुम डालना चाहते हो बेड़ियाँ / पाँवों में मेरे / तथाकथित आदर्शों की ?
बन्द दरवाजों के पीछे / नैतिकता के नाम पर / करना चाहते हो भ्रमित ?
देकर दुहाई थोथे सिद्धान्तों की / सिलना चाहते हो होंठ मेरे ?
पर झेलकर अनेकों झँझावात / बन गई हूँ मैं दुर्गा
नहीं साहस किसी दुष्यन्त में / कर दे जो आहत / भावनाओं को मेरी
नहीं साहस किसी दुशासन में / खेल सके जो / अस्मिता से मेरी
नहीं साहस किसी महान ऋषि में / कर दे जो जड़ सारी भावनाओं / सम्वेदनाओं को मेरी
नहीं साहस किसी राम में / ले सके जो अग्नि परीक्षा मेरी
नहीं देखना प्रदर्शन / अहंकार का / किसी दुष्यन्त के
नहीं हूँ मैं अबला / जो दया की पात्र बनूँ किसी कृष्ण की
नहीं हूँ मैं पत्थर / जो पड़ी रहूँ ठोकरों में / किसी राम की
पाने को नया जीवन
अब नहीं होंगे प्रश्न / अस्तित्व पर मेरे
अब नहीं होंगे प्रश्न / आदर्शों पर मेरे
अब नहीं किया जाएगा विवश मुझे / नाम पर नैतिकता के
अब नहीं सी सकेगा कोई होंठ मेरे / नाम पर सिद्धान्तों के
अब नहीं बनूँगी मैं देवी / नाम पर आस्था के
क्योंकि मुझे है अधिकार / इन्सान होने का
माना फँसी हूँ चक्रव्यूह में नामों के
कहीं माँ / कहीं बेटी / कहीं बहन / कहीं पत्नी / कहीं प्रेमिका
क्योंकि समेट दिया जाता है मुझे / चक्रव्यूह में इन नामों के |
किन्तु मुझे भी है अधिकार खुल कर जीने का
मुझे भी है अधिकार नाचने का अपनी धुन पर / गुनगुनाने का
मुझे भी है अधिकार / पूछने का तुमसे कुछ सवाल
मुझे भी है अधिकार / उतारने का तुम्हारे ख़ूबसूरत मुखौटे
मैं केवल प्रस्तर प्रतिमा भर नहीं हूँ
मत भूलो कि मैं ही हूँ जीवन की धुरी
मुझसे ही है जीवन में लय और गति
हिमगिरि सी अटल हूँ / तो हूँ सागर सी गहरी भी
इसीलिए तो सिमट जाते हैं आकर मुझ पर ही
सारे आदर्श / सारी नैतिकताएँ / सारे सिद्धान्त
नहीं मिटा पाओगे मेरे अस्तित्व को तुम कभी
क्योंकि मैं ही हूँ आधार इस सृष्टि का…