मित्रों कल अमावस्या थी – पितृविसर्जनी अमावस्या – समस्त हिन्दू धर्मावलम्बियों ने पितृपक्ष का समापन किया और आज यानी अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को घटस्थापना के साथ नवरात्रों का आरम्भ हो गया है | कैसा सुखद संयोग है कि पितृपक्ष के समापन के साथ ही आरम्भ हो जाती है नवरात्रों की चहल पहल | पितृपक्ष के दौरान ही नवरात्र और उनके साथ जुड़े दीपावली-भाई दूज तक चलने वाले अन्य पर्वों के लिए बाज़ार सजने शुरू हो जाते हैं, और पितरों को विदा करके लोग नवरात्रों के घटस्थापना की तैयारी में लग जाते हैं |
जैसा कि सभी जानते हैं, अनन्त चतुर्दशी – जिसमें भवगान विष्णु के ही एक रूप अनन्त भगवान की पूजा अर्चना की जाती है – के बाद भाद्रपद पूर्णिमा से श्राद्ध पक्ष का आरम्भ हो जाता है | यों तो आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से पितृपक्ष का आरम्भ माना जाता है, किन्तु जिनके प्रियजन पूर्णिमा को परलोकगामी हुए हैं उनका श्राद्ध एक दिन पूर्व अर्थात भाद्रपद पूर्णिमा को करने का विधान है | इन पन्द्रह दिवसों तक लगभग समस्त हिन्दू समुदाय अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करता है | उनकी स्मृति में भोज कराए जाते हैं | कितनी उदात्त भावना रही होगी हमारे ऋषि मुनियों की – हमारे पूर्वजों की – कि वर्ष का पूरा एक पक्ष ही पितृगणों के लिये समर्पित कर दिया | इन पन्द्रह दिनों में विधि विधान पूर्वक श्राद्धकर्म किया जाता है | शास्त्रों के अनुसार श्राद्धकर्म करने का अधिकारी कौन है, विधान क्या है आदि चर्चा में हम नहीं पड़ना चाहते, इस कार्य के लिये पण्डित पुरोहित हैं | पण्डित लोगों का तो कहना है और शास्त्रों में भी लिखा हुआ है कि श्राद्ध कर्म पुत्र द्वारा किया जाना चाहिये | प्राचीन काल में पुत्र की कामना ही इसलिये की जाती थी कि अन्य अनेक बातों के साथ साथ वह श्राद्ध कर्म द्वारा माता पिता को मुक्ति प्रदान कराने वाला माना जाता था “पुमान् तारयतीति पुत्र:” | लेकिन जिन लोगों के पुत्र नहीं हैं उनकी क्या मुक्ति नहीं होगी, या उनके समस्त कर्म नहीं किये जाएँगे ? हमारे कोई भाई नहीं है, माँ का स्वर्गवास अब से सात वर्ष पूर्व जब हुआ तो पिताजी भी उस समय तक स्वर्ग सिधार चुके थे | हमने अपनी माँ को मुखाग्नि भी दी और अब उनका तथा अपने पिता का श्राद्ध भी पूर्ण श्रद्धा के साथ हम ही करते हैं | तो इस बहस में हम नहीं पड़ना चाहते | हम तो बात कर रहे हैं इस श्राद्ध पर्व की मूलभूत भावना श्रद्धा की – जो भारतीय संस्कृति की नींव में ही निहित है |
वास्तव में श्राद्ध प्रतीक है पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का | हिन्दू मान्यता के अनुसार प्रत्येक शुभ कार्म के आरम्भ में माता पिता तथा पूर्वजों को प्रणाम करना चाहिये | यद्यपि अपने पूर्वजों को कोई विस्मृत नहीं कर सकता, किन्तु फिर भी दैनिक जीवन में अनेक समस्याओं और व्यस्तताओं के चलते इस कार्य में भूल हो सकती है | इसीलिये हमारे ऋषि मुनियों ने वर्ष में पूरा एक पक्ष इस निमित्त रखा हुआ है |
श्राद्ध शब्द का सामान्य अर्थ है श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म – “संपादन: श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम् |” जिस कर्म के द्वारा मनुष्य “अहं” अर्थात “मैं” का त्याग करके समर्पण भाव से “पर” की चेतना से युक्त होने का प्रयास करता है वही वास्तव में श्रद्धा का आचरण है | श्रद्धा का आचरण करता हुआ व्यक्ति समष्टि भाव को प्राप्त हो जाता है तथा समस्त भूतों में अपनी आत्मा को देखता है | श्रद्धावान व्यक्ति उदारमना, करुणाशील, मैत्री तथा कृतज्ञता के भाव से युक्त तथा दानशील होता है | और यही कारण है कि ऐसे व्यक्ति की भावना समस्त जीवों के प्रति आत्मौपम्य की हो जाती है – अर्थात उसे हर प्राणी में – हर जीव में – अपनी आत्मा ही जान पड़ती है | अपने पूर्वजों के प्रति इसी प्रकार की श्रद्धा के साथ दिया गया दान श्राद्ध कहलाता है – “श्रद्धया दीयते यस्मात्तस्माच्छ्राद्धम् निगद्यते |” इस प्रकार श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है और यही कारण है कि श्रद्धा और श्राद्ध में घनिष्ठ सम्बन्ध है | वैसे भी देखा जाए तो श्रद्धारहित कोई भी कर्म करने से दम्भ में वृद्धि होती है तथा कर्म में कुशलता का अभाव रहता है | अतः श्रद्धा तो दैनिक जीवन की मुख्य आवश्यकता है | माता पिता के प्रति श्रद्धा हमें विनम्र बनाती है तो गुरु के प्रति श्रद्धा हमें ज्ञान वान बनाती है – क्योंकि तब हम संशयरहित और समर्पण भाव से गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं | समस्त चराचर सृष्टि के प्रति यदि श्रद्धा का भाव मन में दृढ़ हो जाए तो मनुष्य किसी भी प्रकार के अनाचार अन्य जीव के साथ कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसकी श्रद्धा उसे अन्य जीवों के प्रति उदारमना बना देती है | गीता में कहा गया है “श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय:, ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति | अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति, नायंलोकोsस्ति न पारो न सुखं संशयात्मनः ||” (४/३९,४०) अर्थात आरम्भ में तो दूसरों के अनुभव से श्रद्धा प्राप्त करके मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु जब वह जितेन्द्रिय होकर उस ज्ञान को आचरण में लाने में तत्पर हो जाता है तो उसे श्रद्धाजन्य शान्ति से भी बढ़कर साक्षात्कारजन्य शान्ति का अनुभव होता है | किन्तु दूसरी ओर श्रद्धा रहित और संशय से युक्त पुरुष नाश को प्राप्त होता है | उसके लिये न इस लोक में सुख होता है और न परलोक में |
इस प्रकार श्रद्धावान होना चारित्रिक उत्थान का, ज्ञान प्राप्ति का तथा एक सुदृढ़ नींव वाले पारिवारिक और सामाजिक ढाँचे का एक प्रमुख सोपान है | और जिस राष्ट्र के परिवार तथा समाज की नींव सुदृढ़ होगी उस राष्ट्र का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता | साथ ही, पितृजनों के प्रति श्रद्धायुत होकर दान करने से तो निश्चित रूप से अपार शान्ति का अनुभव होता है तथा शास्त्रों की मान्यता के अनुसार लोक परलोक संवर जाता है | इसलिये इस श्राद्धपक्ष का इतना महत्व हिन्दू मान्यता में है | और इस श्राद्धपक्ष के समापन अर्थात पितृविसर्जन के साथ ही आरम्भ हो जाता है माँ दुर्गा की उपासना का पर्व नवरात्र | इस दिन को महालया के नाम से भी जाना जाता है – पितृपक्ष का अन्तिम दिन अर्थात् पितरों को विदा करके माँ दुर्गा के आह्वाहन का दिन | एक ओर अन्तिम श्राद्ध और दूसरी ओर माँ दुर्गा की पूजा अर्चना का आरम्भ | पितरों को श्रद्धा सहित अन्तिम तर्पण करके उन्हें विदा किया जाता है और इसी के साथ आरम्भ हो जाती है महिषासुर मर्दिनी के मंत्रोच्चारण के साथ नवरात्रों में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना | आश्विन नवरात्रों की धूम मच जाती है | जगह जगह देवी के पण्डाल सजते हैं जहाँ दिन दिन भर और देर रात तक माँ दुर्गा की पूजा का उत्सव चलता रहता है नौ दिनों तक, जिसका समापन दसवें दिन धूम धाम से देवी की प्रतिमा विसर्जन के साथ होता है |
नवरात्रि के महत्त्व के विषय में विवरण मार्कंडेय पुराण, वामन पुराण, वाराह पुराण, शिव पुराण, स्कन्द पुराण और देवी भागवत आदि पुराणों में उपलब्ध होता है | इन पुराणों में देवी दुर्गा के द्वारा महिषासुर के मर्दन का उल् लेख उपलब्ध होता है | महिषासुर मर्दन की इस कथा को “दुर्गा सप्तशती” के रूप में देवी माहात्मय के नाम से जाना जाता है | नवरात्रि के दिनों में इसी माहात्मय का पाठ किया जाता है और यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है | जिसमें ५३७ चरणों में ७०० मन्त्रों के द्वारा देवी के माहात्मय का जाप किया जाता है | इसमें देवी के तीन मुख्य रूपों – काली अर्थात बल, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा के द्वारा देवी के तीन चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध तथा शुम्भ निशुम्भ वध का वर्णन किया जाता है | पितृ पक्ष की अमावस्या को महालया के दिन पितृ तर्पण के बाद से आरम्भ होकर नवमी तक चलने वाले इस महान अनुष्ठान का समापन दशमी को प्रतिमा विसर्जन के साथ होता है | इन नौ दिनों में दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है | ये नौ रूप सर्वज्ञ महात्मा वेद भगवान के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं |
“प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी, तृतीयं चन्द्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् |
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनी तथा सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ||
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता:, उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ||
तो आज है देवी की पूजा अर्चना का प्रथम दिन अर्थात आश्विन शुक्ल प्रतिपदा – माँ शैलपुत्री की अर्चना का दिन | शैलपुत्री का रूप माना जाता है कि इनके दो हाथों में से एक में त्रिशूल और दूसरे हाथ में कमलपुष्प होता है | भैंसे पर सवार माना जाता है | माना जाता है कि शिव की पत्नी सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपने पति का अपमान देखकर उसी यज्ञ की अग्नि में कूदकर स्वयं को होम कर दिया था और उसके बाद हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ से हिमपुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या करके पुनः शिव को पति के रूप में प्राप्त किया | यद्यपि ये सबकी अधीश्वरी हैं तथापि पौराणिक मान्यता के अनुसार हिमालय की तपस्या और प्रार्थना से प्रसन्न हो कृपापूर्वक उनकी पुत्री के रूप में प्रकट हुईं | यह दुर्गा का प्रथम रूप है | शक्ति का यह प्रथम रूप शिव के साथ संयुक्त है, जो प्रतीक है इस तथ्य का कि शक्ति और शिव के सम्मिलन से ही जगत का कल्याण सम्भव है |
तो शक्ति और शिव का ये सम्मिलित रूप – शैलपुत्री – हम सबकी रक्षा करे और जगत का कल्याण करे – इसी कामना के प्रथम नवरात्र की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ……