अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस को समर्पित रहा ये सप्ताह, जिसका कल यानी आठ मार्च को समापन है अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में… सप्ताह भर विश्व भर में अनेक प्रकार के कार्यक्रमों का, गोष्ठियों का, रैलियों का, कार्यशालाओं आदि का आयोजन होता रहा… तो इसी महिला दिवस के उपलक्ष्य में समस्त नारी शक्ति को शुभकामनाओं सहित समर्पित हैं मेरी ये नीचे की कुछ पंक्तियाँ… क्योंकि मैं समझती हूँ नारी आज “नीर भरी दुःख की बदली” नहीं है, बल्कि “यौवन और जीवन का जीता जागता स्वरूप” है… ज़रा सी हवा मिल जाए तो “आँधी” बन जाने में भी उसे कुछ देर नहीं लगती… बही चली जाती है मस्त धारा के प्रवाह की भाँति अपनी ही धुन में मस्त हो… नभ में ऊँची उड़ान भरते पंछी के समान उन्मुक्त हो कितनी भी ऊंचाइयों का स्पर्श कर सकती है… एक ओर मलय पवन के समान अपनी ममता की सुगन्ध से कण कण को सरसाने की सामर्थ्य रखती है तो दूसरी ओर रखती है सामर्थ्य बड़ी से बड़ी चट्टानों को भी अपनी छाती से टकराकर तोड़ डालने की… तो आइये मिलकर मनाएँ महिला दिवस इस संकल्प के साथ कि ईश्वर की स्नेहभरी – ममताभरी – ऊर्जावान – दृढ़संकल्प संरचना – संसार की इस आधी आबादी में से कोई भी दबी कुचली – निरक्षर – अर्थहीन – अस्वस्थ – अबला कहलाने को विवश न रहने पाए…
आज बन गई हूँ मैं आँधी इन तूफ़ानों से टकराकर |
भ्रम की चट्टानों को तोड़ा अपनी छाती से टकराकर ||
मैंने जब मुस्काना छोड़ा, चन्दा रात रात भर रोया
मन में हूक उठी, कोयल ने दर्द भरा तब गान सुनाया |
अनगिन पुष्प हँस उठे मेरे मन के शूलों से छिदवाकर
भ्रम की चट्टानों को तोड़ा अपनी छाती से टकराकर ||
मुझे मिटाने और बुझाने के प्रयास कितने कर डाले
किन्तु मेरे जलने से ही तो होते हैं जग में उजियाले |
मेरी हर एक चिता बिखर गई मुझसे बार बार परसा कर
भ्रम की चट्टानों को तोड़ा अपनी छाती से टकराकर ||
मेरा जीवन एक हवा के झोंके जैसा भटक रहा था
नहीं कहीं विश्राम, नहीं कोई नीड़ मुझे तब सूझ रहा था |
तभी धरा आकाश सिमट गए मुझे स्वयं में ही दर्शा कर
भ्रम की चट्टानों को तोड़ा अपनी छाती से टकराकर ||
मैं ही यौवन, मैं ही जीवन, मैं ही मिलन और बिछुरन हूँ
मैं ही हूँ श्रृंगार, अरे मैं ही प्रियतम का गीत मधुर हूँ |
कितने साज़ों को झनकारा मेरे हाथों ने सहलाकर
भ्रम की चट्टानों को तोड़ा अपनी छाती से टकराकर ||