मन मेरा बना हुआ है घुमक्कड़
क्योंकि चाहता है अनुभव करना उन ऊंचाइयों का
जहाँ पुष्पों के पराग से सुगन्धित समीर
सहला रहा हो मेरी नासिका के अग्रभाग को
किसी वन वृक्ष की लताएँ
सुलझा रही हों मेरे उलझे हुए केश
गुनगुनी धूप की गर्माहट से युक्त धीमी पवन का स्पर्श
किसी मुलायम शाल की तरह पहुँचा रहा हो आराम
मैं बन्द करती हूँ अपने नेत्रों को
और पहुँच जाती हूँ उस मनोहर स्वप्न में
जहाँ देखती हूँ कि
चली जा रही हूँ पर्वत श्रृंखलाओं पर / ऊपर ही ऊपर
मानों खींचे लिए जा रहा हो कोई अज्ञात मुझे
अनजानी ऊंचाइयों पर / एक संकरे लेकिन आकर्षक रश्मि पथ पर
नहीं करती कोई प्रयास रोकने का उसे
बस छोड़ देती हूँ खुद को शिथिल
ताकि चढ़ती चली जाऊँ ऊँचे / और ऊँचे
जहाँ मेरे पैरों के नीचे हों रुई के ढेर जैसे बादल
हर ओर बिछे हों अनेक रंगों के दिव्य पुष्प
इन्द्रधनुष की सी आभा बिखराते
जहाँ बन बैठें मेरे सारे भाव अभाव
जहाँ गूँजती हो मोहक दिव्य ध्वनि किसी वंशी की
जैसी सुनी न हो किसी ने भी कभी पहले
जहाँ से देख सकूँ उस विशाल विस्तार को
जिसका है एक छोटा सा कण
मेरा अपना अस्तित्व / जो है मर्त्य / जो है असत्य
जहाँ पहुँच फैला दूँ अपनी दोनों भुजाएँ
और भर लूँ उस असीमित को अपनी बाहों में
या खो जाऊँ उस असीमित में
और बन जाऊँ शाश्वत सदा के लिए…