ज्ञान सत्वगुण सम्पन्न पुरुष को ही हो सकता है | शेष दो पुरुष साधारण श्रेणी में आते हैं | तामसी गुणों की वृद्धि होने पर पतन निश्चित है, किन्तु राजसी गुणों की वृद्धि होने पर कर्मफल की प्राप्ति मनुष्य का लक्ष्य होता है | किन्तु इस स्थिति में मूढ़ता नहीं आती, हाँ कभी विक्षिप्त भले ही हो जाए, जबकि तामसी वृत्ति की अधिकता होने पर मूढ़ता आती है | यद्यपि ये दोनों ही वृत्तियाँ असामान्य मनोवृत्ति की परिचायक हैं, तथापि दोनों में अन्तर है कि तामसी वृत्ति जहाँ मनुष्य का पतन करती है वहीं राजसी वृत्ति विकास की ओर अग्रसर करती है, क्योंकि मनुष्य अपने कर्म की सफलता, लक्ष्य की प्राप्ति की कामना करते हुए उसी के लिये प्रयत्नशील रहता है | तामसी मनोवृत्ति वाले जहाँ घमण्ड में चूर हो जाते हैं वहीं राजसी मनोवृत्ति वाले लोग लक्ष्य में विघ्न उपस्थित होने पर विमोहित हो जाते हैं, विक्षिप्त हो जाते हैं |
कोई भी वैद्य उस मूर्ख का इलाज़ नहीं कर सकता जो वैद्य को ही मूर्ख मान बैठे | विक्षिप्त की चिकित्सा तो की जा सकती है, क्योंकि उसे स्वयं यह भान नहीं होता कि उसे क्या करना है क्या नहीं अतः वह निष्कर्मण्य होकर बैठ रहता है | दुर्योधन मूढ़ था | इसीलिये जब कृष्ण सन्धिप्रस्ताव लेकर पहुँचे तो उस प्रस्ताव को स्वीकार करना तो दूर, उनका अपमान करके और यह कहकर कि युद्ध के बिना तो सूई की नोक बराबर ज़मीन भी मैं नहीं दूँगा, उन्हें वापस लौटा दिया | वह स्वयं को अजेय समझता था | ऐसे सर्वशक्तिमान को भला कोई क्या समझाता ? “प्रकृतेः गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु, तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् |” (३/२९) – प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में आसक्त होते हैं | उन अज्ञानी पुरुषों को ज्ञानी पुरुष क्या कहा सकते हैं ?
दूसरी ओर अर्जुन थे | वे किंकर्तव्यविमूढ़ अवश्य थे पर मूर्ख नहीं थे | उनको मार्गदर्शन कराकर उनकी विक्षिप्ति दूर करके उन्हें धर्मयुद्ध के लिये प्रेरित किया जा सकता था | यही कारण था कि कृष्ण ने अर्जुन को चिकित्सा का अधिकारी माना दुर्योधन को नहीं | अहंकारी होने के कारण दुर्योधन न तो उनका उपदेश शान्तिपूर्वक पूर्ण मनोयोग से सुनता, न ही उस पर मनन कर सकता था, और पालन करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था | जबकि अर्जुन कातर भाव से पूर्ण निष्ठा के साथ कृष्ण की शरण आए थे | वे उनके उपदेशों को ध्यान से सुनकर, उनके मर्म को समझकर उनका पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करने में सक्षम थे |
इस समस्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि वैद्य डाक्टर के पास तो पूर्ण शरणागत भाव से, पूर्ण समर्पण के भाव से जाना होता है, तभी वह उचित उपचार कर सकता है | जहाँ शंका हो, समर्पण का अभाव हो, वहाँ चिकित्सा का कोई लाभ हो ही नहीं सकता | अतः यह सत्य है कि चिकित्सा विक्षिप्त की तो की जा सकती है, मूढ़ की नहीं |
कृष्ण ने अर्जुन के विमोहित होने पर उनकी चिकित्सा की अध्यात्म के द्वारा मानसिक उपचार के साथ | पातंजल योगदर्शन के अनुसार मानसिक चिकित्सा का मूलभूत सूत्र है “योगाश्चित्तवृत्तिनिरोध:” तथा इसका साधन है “अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:” इसी बात को गीता में इस प्रकार कहा गया है “असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्, अभ्यासेन तू कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते |” (६/३५)
यह मन चंचल है तथा कठिनता से ही वश में होता है | किन्तु अभ्यास से तथा अनिच्छारूप वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है | मन का विभ्रम दूर करने का एकमात्र यही उपाय है | एक बार अभ्यास और वैराग्य द्वारा इसमें सफलता प्राप्त हो जाए तो सारे मानसिक तनाव और विभ्रम नष्ट हो सकते हैं | सारी ग्रन्थियाँ सुलझ सकती हैं | और मनुष्य “ईश्वरप्रणिधानाद्वा” अनन्य भक्तिपूर्वक अपने जीवन के चरम लक्ष्य – उस परमात्मतत्व को प्राप्त कर सकता है |