मित्रों, आज हम सब भगवान श्रीकृष्ण का जन्म महोत्सव मना रहे हैं | तो सबसे पहले तो सभी को इस महापर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ | आज कहीं लोग व्रत उपवास आदि का पालन कर रहे होंगे, कहीं भगवान कृष्ण की लीलाओं को प्रदर्शित करती आकर्षक झाँकियाँ सजाई जाएँगी तो कहीं भगवान की लीलाओं का मंचन किया जाएगा और कहीं मटकी फोड़ी जाएँगी | मन्दिरों में तो पिछले कई दिनों से सजावट का कार्य चल रहा है | बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिन | वास्तव में श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व भारतीय इतिहास के लिये ही नहीं, विश्व इतिहास के लिये भी अलौकिक एवम् आकर्षक व्यक्तित्व है और सदा रहेगा | उन्होंने विश्व के मानव मात्र के कल्याण के लिये अपने जन्म से लेकर निर्वाण पर्यन्त अपनी सरस एवं मोहक लीलाओं तथा परम पावन उपदेशों से अन्तः एवं बाह्य दृष्टि द्वारा जो अमूल्य शिक्षण दिया था वह किसी वाणी अथवा लेख नी की वर्णनीय शक्ति एवं मन की कल्पना की सीमा में नहीं आ सकता | तथापि श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र, लीलाओं और उपदेशों पर तत्वतः विचार करने का ही प्रयास मुझ जैसी अल्पज्ञ ने किया है |
अवतारवादी शास्त्रों की मान्यता के अनुसार कृष्ण षोडश कला सम्पन्न पूर्णावतार होने के कारण “कृष्णस्तु भगवान स्वयम्” हैं | श्रीकृष्ण का चरित्र अत्यन्त दिव्य है । हर कोई उनकी ओर खिंचा चला जाता है । जो सबको अपनी ओर आकर्षित करे, भक्ति का मार्ग प्रशस्त करे, भक्तों के पाप दूर करे, वही कृष्ण है । वह एक ऐसा आदर्श चरित्र है जो अर्जुन की मानसिक व्यथा का निदान करते समय एक मनोवै ज्ञान िक, कंस जैसे असुर का संहार करते हुए एक धर्मावतार, स्वार्थ पोषित राजनीति का प्रतिकार करते हुए एक आदर्श राजनीतिज्ञ, विश्व मोहिनी बंसी बजैया के रूप में सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ, बृज वासियों के समक्ष प्रेमावतार, सुदामा के समक्ष एक आदर्श मित्र, सुदर्शन चक्रधारी के रूप में एक योद्धा व सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता हैं । उनके जीवन की छोटी से छोटी घटना से यह सिद्ध होता है कि वे सर्वैश्वर्य सम्पन्न थे | धर्म की साक्षात् मूर्ति थे | संसार के जिस जिस सम्बन्ध और जिस जिस स्तर पर जो जो व्यवहार हुआ करते हैं उन सबकी दृष्टि से और देश, काल, पात्र, अवस्था, अधिकार आदि भेदों से व्यक्ति के जितने भिन्न भिन्न धर्म अथवा कर्तव्य हुआ करते हैं उन सबमें कृष्ण ने अपने विचार, व्यवहार और आचरण से एक सद्गुरु की भांति पथ प्रदर्शन किया है | कर्तव्य चाहे माता पिता के प्रति रहा हो, चाहे गुरु-ब्राह्मण के प्रति, चाहे बड़े भाई के प्रति अथवा गौ माता और अपने भक्तों के प्रति रहा हो, चाहे शत्रु से व्यवहार हो अथवा मित्र से, चाहे शिष्य और शरणागत हो – सर्वत्र ही धर्म का उच्चतम स्वरूप और कर्तव्यपालन का सार्वभौम आदर्श उनके आचरण में प्रकट होता है | राजनीति के क्षेत्र में उनकी अनुपम एवम् अद्वितीय राजनीतिक कुशलता व्यक्त होती है | समग्र विश्व के प्रति व्यवहार में उनका आचरण “अमानी मानदो मान्यः” अर्थात् अहंकार रहित होकर दूसरों को मान देने वाला सिद्ध होता है | राजनीति में भी किस प्रकार राग द्वेष से रहित होकर निष्पक्ष और निष्कपट व्यवहार किया जा सकता है इसका उदाहरण भी कृष्ण के व्यक्तित्व के अतिरिक्त और कहीं ढूँढे भी नहीं मिल सकता |
श्रीकृष्ण जन्मोत्सव सामाजिक समता का उदाहरण है । श्रीकृष्ण ने नगर के कारागार में जन्म लिया और गाँव में खेल ते हुए उनका बचपन व्यतीत हुआ । इस प्रकार श्रीकृष्ण का चरित्र गाँव व नगर की संस्कृति को जोड़ता है | गरीब को अमीर से जोड़ता है | गो चरक से गीता उपदेशक होना, दुष्ट कंस को मारकर महाराज उग्रसेन को उनका राज्य लौटाना, धनी घराने का होकर गरीब ग्वाल बाल एवं गोपियों के घर जाकर माखन खाना आदि जो लीलाएँ हैं ये सब एक सफल राष्ट्रीय महामानव होने के उदाहरण हैं । कोई भी साधारण मानव श्रीकृष्ण की तरह समाज की प्रत्येक स्थिति को छूकर, सबका प्रिय होकर राष्ट्रोद्धारक बन सकता है । कंस के वीर राक्षसों को पल में मारने वाला अपने प्रिय ग्वालों से पिट जाता है । खेल में हार जाता है । यही है दिव्य प्रेम की स्थापना का उदाहरण । भगवान श्रीकृष्ण की यही लीलाएँ सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रप्रियता का प्रेरक मानदण्ड हैं । यही कारण है कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अनूठा, अपूर्व और अनुपमेय है । श्रीकृष्ण अतीत के होते हुए भी वर्तमान की शिक्षा और भविष्य की अमूल्य धरोहर हैं । उनका व्यक्तित्व इतना विराट है कि उसे पूर्ण रूप से समझ पाना वास्तव में कठिन कार्य है । हमारे अध्यात्म के विराट आकाश में श्रीकृष्ण ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों व ऊँचाइयों पर जाकर भी न तो गम्भीर ही दिखाई देते हैं और न ही उदासीन दीख पड़ते हैं, अपितु पूर्ण रूप से जीवनी शक्ति से भरपूर व्यक्तित्व हैं | श्रीकृष्ण के चरित्र में नृत्य है, गीत है, प्रीति है, समर्पण है, हास्य है, रास है, और है आवश्यकता पड़ने पर युद्ध को भी स्वीकार कर लेने की मानसिकता । धर्म व सत्य की रक्षा के लिए महायुद्ध का उद्घोष है । एक हाथ में बाँसुरी और दूसरे हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर महा-इतिहास रचने वाला कोई अन्य व्यक्तित्व नहीं हुआ संसार में । कृष्ण के चरित्र में कहीं किसी प्रकार का निषेध नहीं है, जीवन के प्रत्येक पल को, प्रत्येक पदार्थ को, प्रत्येक घटना को समग्रता के साथ स्वीकार करने का भाव है | वे प्रेम करते हैं तो पूर्ण रूप से उसमें डूब जाते हैं, मित्रता करते हैं तो उसमें भी पूर्ण निष्ठावान रहते हैं, और जब युद्ध स्वीकार करते हैं तो उसमें भी पूर्ण स्वीकृति होती है |
कालिया नामक नाग को नाथने की लोक प्रसिद्ध लीला का तात्पर्य यही है कि स्वार्थपरता, निर्दयता आदि ऐसे दोष हैं जो जीवन रूपी यमुना के निर्मल जल को विषाक्त कर देते हैं | जब तक शुद्ध सात्विक बुद्धि रूपी कृष्ण अपने पैरों से इन दोषों को कुचल कर नष्ट नहीं कर देता तब तक जीवन सरिता की सरसता एवं शुद्धता असम्भव रहेगी | इसी प्रकार गोपालों और ब्राह्मणों की कथा | कृष्ण ने अपने सखाओं को याज्ञिक ब्राह्मणों के पास अन्न प्राप्त करने भेजा | उनकी पत्नियों ने उन्हें सादर भोजन दिया | किन्तु उन नीरस वेदपाठी ब्राह्मणों ने उन्हें फटकार दिया | इस कथा का तात्पर्य यह है कि केवल दम्भ प्रदर्शन के लिये किया गया कर्मकाण्ड और वेदपाठ केवल आत्मप्रवंचना है | ममता और निरभिमानता ही जीवन का सार है | बालक ही भगवान का साकार रूप हैं | अतः प्रेमपूर्वक की गई बाल सेवा ही सच्ची ईश सेवा है | इसी प्रकार उनकी बाललीलाओं में सर्वत्र ही कोई न कोई रहस्य दृष्टिगोचर होता है | न केवल बाललीलाओं में, वरन् समस्त लीलाओं में ही कोई न कोई रहस्य, कोई न कोई अर्थ छिपा हुआ है | कृष्ण का चरित्र सौन्दर्य, शक्ति और शील का समन्वय था | अपनी शक्ति और सामर्थ्य से ही उन्होंने बृजवासियों को अनेक विपत्तियों से बचाया था | गोवर्धन पर्वत के नीचे समस्त ग्रामवासियों को एकत्र करके उन्हें घोर वर्षा से बचाते समय कृष्ण ने एक सेवक के रूप में कार्य किया था | दावानल में भस्म होते ग्वालों की रक्षा की | जाति समाज और देश की रक्षा के लिये कृष्ण ने हर सम्भव प्रयास किये | पूतना मोक्ष, नलकूबर और मणिग्रीव का उद्धार, द्रोपदी पर कृपा, दु:शासन को अपनी समस्त सेना युद्ध के लिये देकर अर्जुन की ओर से अकेले निहत्थे खड़े हो जाना, अपनी सेना का संहार होते देखकर भी विचलित न होना – यह सब कृष्ण जैसे योगी के लिये ही सम्भव था | अपने कुटुम्बीजन भी जब मिलकर नहीं बैठ सके तो उनका भी सर्वनाश ही हुआ – इससे भी यही स्पष्ट होता है कि यदि समाज को उन्नति के शिखर पर पहुँचाना है तो व्यर्थ की बातों को लेकर अशान्ति तथा वैमनस्य उत्पन्न करने से कोई लाभ नहीं होगा, ऐसा करने से तो विनाश ही होगा उन्नति नहीं | साथ ही समाज को यदि उन्नति की ओर अग्रसर होना है तो प्रत्येक व्यक्ति को व्यावहारिक भी होना होगा | कृष्ण-सुदामा का प्रसंग इसका उत्कृष्ट उदाहरण है | श्रीकृष्ण जैसा ऐश्वर्यसम्पन्न व्यक्ति सुदामा जैसे निर्धन व्यक्ति के तन्दुल निकालकर खा लेता है और सुदामा को ऐश्वर्यशाली बना देता है | यह घटना एक ओर जहाँ मित्रता में आस्था को दर्शाती है वहीं सामन्तवादी मनोवृत्ति का भी मखौल उड़ाती है और प्राणीमात्र में समता की स्थापना करती है | सुदामा अध्ययन, मनन, रचना-सर्जना में ऐसे डूबे कि बुद्धि वैभव को ही स्वधर्म मान उसी में जीवन की सार्थकता खोजने लगे | परिवार पालन के लिये धन की भी आवश्यकता होती है इस सत्य को वे भुला ही बैठे | परिग्रह और अभाव में अन्तर भुला बैठे थे सुदामा | जबकि आवश्यकता है दोनों में सन्तुलन स्थापित करने की | परिग्रह मत करो पर अभावग्रस्त भी मत रहो | श्री कृष्ण यह भी सिद्ध करना चाहते थे कि व्यक्ति को व्यावहारिक भी होना चाहिये |
श्रीकृष्ण को रसिक बिहारी, लीलाप्रिय, सहस्ररमणीप्रिय आदि न जाने कितने नामों से सम्बोधित किया जाता है, किन्तु श्रीकृष्ण एक नवीन प्रकार की नैतिकता को स्थापित करने वाले एक महान व्यक्तित्व थे | भौमासुर के विनाश के पश्चात् उसके द्वारा बन्दी बनाई गई सोलह हज़ार स्त्रियों को कृष्ण ने इसलिये स्वीकार किया क्योंकि वे जानते थे कि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा | वे जानते थे कि एक अनाचारी की क़ैद से छूटी इन निर्दोष युवतियों को सदा के लिये कुलटा मान लिया जाएगा और कोई भी इनके साथ विवाह के लिये आगे नहीं आएगा | उनके सम्मान की रक्षा के लिये तथा समाज के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करने के लिये कृष्ण ने उन्हें स्वीकार किया | इसी प्रकार रासलीला | जो लोग कृष्ण को केवल रास रचैया भर मानते हैं वास्तव में वे लोग रास के अर्थ तथा मर्म को ही भली भांति नहीं समझ पाए हैं | कृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य करना कोई साधारण घटना नहीं है | भाव, ताल, नृत्य, छन्द, गीत, रूपक एवं लीलाभिनय से युक्त यह रास – जिसमें रस का उद्भव मन से होता है तथा जो पूर्ण रूप से अलौकिक और आध्यात्मिक है – वैष्णव परम्पराओं से लेकर जैन परम्पराओं तक समस्त चिन्तन परम्पराओं में ज्ञान का आलोक लेकर आया | समस्त ब्रह्माण्ड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरूष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की ही तो एक झलक है । उस रास में किसी प्रकार की काम भावना नहीं है | कृष्ण पुरूष तत्व है और गोपिकाएँ प्रकृति तत्व । इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का नृत्य प्रकृति और पुरूष का महानृत्य है । विराट प्रकृति और विराट पुरूष का महारास है यह | तभी तो प्रत्येक गोपी यही अनुभव करती है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं । सांसारिक दृष्टि से यह रासनृत्य मनोरंजन मात्र हो सकता है, किन्तु यह नृत्य पूर्ण रूप से पारमार्थिक नृत्य है | एक ओर महारास तो दूसरी ओर वस्त्रहरण द्वारा गोपियों को सामजिक मर्यादा का उपदेश | एक ओर जहाँ चीर हरण की लीला में प्रेम का सामूहिक विकास होने के साथ गोपियों के लिये लोकमर्यादा का उपदेश भी है तो वहीं रासलीला में कृष्ण तथा गोपियों के प्रेम का चरम उत्कर्ष बिंदु है जहाँ किसी भी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक गोपनीयता अथवा रहस्य का आवरण नहीं रहता | राग योग की इस दशा में बृहदारण्यक का यह कथन सिद्ध होता है “जैसे पुरुष को अपने आलिंगनकाल में बाहर भीतर की कोई सुधि नहीं रहती उसी प्रकार जब उपासक प्राज्ञ द्वारा आलिंगित होता है तब वह अपनी सुध बुध खो बैठता है |”
कृष्ण गोपियों के प्रेम में आसक्त दिखाई देते तो हैं, किन्तु उनका वह आकर्षण भी उन्हें मथुरा में उनके कर्तव्य से विमुख नहीं कर पाता | इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का प्रेम प्रसंग कामुकता का खण्डन करके लोकहित की भावना का समर्थन करता है | उनकी इसी भावना से प्रेरित होकर ही विरहाकुल राधा भी अपना विरह भूल ग्रामवासियों की सेवा में लग जाती हैं और एक सच्ची तथा निष्ठावान समाजसेविका बन जाती हैं | कृष्ण एक ऐसा विराट स्वरूप हैं कि किसी को उनका बालरूप पसन्द आता है तो कोई उन्हें आराध्य के रूप में देखता है तो कोई सखा के रूप में | किसी को उनका मोर मुकुट और पीताम्बरधारी, यमुना के तट पर कदम्ब वृक्ष के नीचे वंशी बजाता हुआ प्राणप्रिया राधा के साथ प्रेम रचाता प्रेमी का रूप भाता है तो कोई उनके महाभारत के पराक्रमी और रणनीति के ज्ञाता योद्धा के रूप की सराहना करता है और उन्हें युगपुरुष मानता है | वास्तव में श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूष हैं ।
आज की राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं के निदान के लिये कृष्ण के चरित्र से प्रेरणा ली जा सकती है | आज के नेता लोग यदि कृष्ण की विलक्षण राजनीति को समझ जाएँ तो देश का कल्याण हो जाए | इसी प्रकार आज का युवा यदि समझ जाए कि कृष्ण ने जीवन से पलायन करने का अथवा निषेध का सन्देश कभी नहीं दिया तो बहुत सी कुण्ठाओं से मुक्ति पा सकता है | कृष्ण एक ओर जहाँ महान योगी थे तो दूसरी ओर ऐसे ऋषि भी थे कि जिन्होंने कभी वासना को महत्त्व नहीं दिया, जीवन के रस को महत्व दिया । वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान और सर्व का कल्याण व शुभ चाहने वाले हैं | अत्यन्त रूपवान होने के साथ साथ सत् असत् के ज्ञाता भी हैं । उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नहीं मिला वरन् एक महान कर्मयोगी और दार्शनिक भी प्राप्त हुआ, जिसका गीता ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है । आर्य जीवनचर्या का सम्पूर्ण विकास हमें कृष्ण के चरित्र में सर्वत्र दिखाई देता है । जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसे उन्होंने अपनी प्रतिभा के द्वारा प्रभावित नहीं किया | सर्वत्र उनकी अद्भुत मेधा तथा प्रतिभा के दर्शन होते हैं | एक ओर वे महान् राजनीतिज्ञ, क्रान्तिविधाता, धर्म पर आधारित नवीन साम्राज्य के स्रष्टा राष्ट्रनायक के रूप में दिखाई पड़ते हैं तो दूसरी ओर धर्म, अध्यात्म, दर्शन तथा नीति के सूक्ष्म चिन्तक, विवेचक तथा प्रचारक के रूप में भी उनकी भूमिका कम महत्व की नहीं है ।
महाभारत के युग में सामाजिक पतन के लक्षण दिखाई पड़ने लगे थे | गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था जन्मना जातियों के रूप में बदल चुकी थी । ब्राह्मण वर्ग अपनी स्वभावगत शुचिता, लोकोपकार भावना, त्याग, सहिष्णुता तथा सम्मान के प्रति तटस्थता जैसे सद्गुणों को भुलाकर संग्रहशील, अहंकारी तथा असहिष्णु बन चुका था । आचार्य द्रोण जैसे शस्त्र तथा शास्त्र में निष्णात ब्राह्मण अपनी अस्मिता को भूलकर और अपने अपमान को सहकर भी कुरुवंशी राजकुमारों को उनके महलों में ही शिक्षा देकर उदरपूर्ति कर रहे थे । कहाँ तो गुरुकुलों का वह युग था जिसमें महान से महान राजा महाराजाओं के पुत्र भी शिक्षा ग्रहण के लिए राजप्रासादों को छोड़कर आचार्यकुलों में रहते थे और त्याग, अनुशासन एवं संयम का जीवन व्यतीत करते थे | इसके विपरीत महाभारतयुग में ऐसा समय आया जब कुरुवृद्ध भीष्म के आदेश से द्रोणाचार्य ने राजमहल को ही विद्यालय का रूप दे दिया था । आज के विश्वविद्यालयों का सम्भवतः प्राचीन रूप यही था जहाँ शिक्षक को शिष्य द्वारा प्रदत्त शुल्क लेकर उसे पढ़ाना था । इस कुरुवंशीय विश्वविद्यालय का प्रथम स्नातक तो दुर्योधन ही था जिसके अनिष्ट कार्यों ने देश के भविष्य को दीर्घ काल के लिए अन्धकारपूर्ण बना दिया था । ऐसी दुर्व्यवस्था वाले कुरुराज्य को नष्ट करके पुनः उसी संयम, त्याग, काम-क्रोध-लोभ-मोह से रहित सर्वजनहितकारी व्यवस्था को पुनर्जीवित करना था | उनके समय में भारतवर्ष सुदूर उत्तर में गान्धार (आज का अफगानिस्तान) से लेकर दक्षिण की सह्याद्रि पर्वतमाला तक क्षत्रियों के छोटे-छोटे स्वतन्त्र किन्तु निरंकुश राज्यों में विभक्त हो चुका था । उन्हें एक सूत्र में पिरोकर समग्र भारतखण्ड को एक सुदृढ़ राजनीतिक इकाई के रूप में पिरोनेवाला कोई नहीं था । एक चक्रवर्ती प्रजापालक सम्राट् के न होने से माण्डलिक राजा नितान्त स्वेच्छाचारी, प्रजापीड़क तथा अन्यायी हो गये थे। मथुरा का कंस, मगध का जरासन्ध, चेदि-देश का शिशुपाल तथा हस्तिनापुर के कौरव सभी दुष्ट, विलासी, दुराचारी तथा ऐश्वर्यमद में प्रमत्त हो रहे थे । कृष्ण ने अपनी नीतिमत्ता, कूटनीतिक चातुर्य तथा सूझबूझ से इन सभी अनाचारियों को जड़ से समाप्त करके धर्मराज की उपाधि धारण करने वाले अजातशत्रु युधिष्ठिर को आर्यावर्त के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर देश में चक्रवर्ती धर्मराज्य स्थापित किया | इसी प्रकार समकालीन सामाजिक दुरवस्था, विषमता तथा नष्ट हुए नैतिक मूल्यों के प्रति वे पूर्ण जागरूक थे । उन्होंने पतनोन्मुख समाज को ऊपर उठाया । स्त्रियों, शूद्र कही जाने वाली जातियों, वनवासियों, पीड़ितों तथा शोषितों के प्रति उनमें अशेष सम्वेदना तथा सहानुभूति थी । गान्धारी, कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा आदि आर्यकुल की नारियों को समुचित सम्मान देकर उनकी नारी वर्ग की प्रतिष्ठा बढ़ाई ।
जिस प्रकार वे नवीन साम्राज्य निर्माता तथा स्वराज्यस्रष्टा युगपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए, उसी प्रकार अध्यात्म तथा तत्व-चिन्तन के क्षेत्र में भी उनकी प्रवृत्तियाँ चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुकी थीं । सुख और दुःख को समान समझने वाले, लाभ तथा हानि, जय और पराजय जैसे द्वन्द्वों को समान मानने वाले अनुद्विग्न, वीतराग तथा जल में रहने वाले कमलपत्र के समान वे सर्वथा निर्लेप तथा स्थितप्रज्ञ रहे । प्रवृत्ति और निवृत्ति, श्रेय व प्रेय, ज्ञान और कर्म, ऐहिक और पारलौकिक जैसी प्रत्यक्ष में विरोधी दीखने वाली प्रवृत्तियों में अपूर्व सामञ्जस्य स्थापित कर उन्हें निज जीवन में क्रियान्वित करना कृष्ण जैसे महामानव के लिए ही सम्भव था । उन्होंने धर्म के दोनों लक्ष्यों अभ्युदय और निःश्रेयस को सार्थक किया । अतः यह निरपवाद रूप में कहा जा सकता है और नि:संकोच स्वीकार किया जा सकता है कि कृष्ण का जीवन आर्य आदर्शों की चरम परिणति है । भारत में नाना सम्प्रदायों और भेदभावों के रहते हुए भी यदि एक केन्द्रीय मंच हो सकता है तो वह है श्रीकृष्णोपदिष्ट धर्ममार्ग | केवल इसी से हमारा राष्ट्रीय संगठन हो सकता है | श्रीकृष्ण के चरित्र में सर्वत्र समदर्शिता प्रकट होती है | सेवा भाव की वे साकार मूर्ति हैं | विश्वमंगल के लिये ही उन्होंने महाभारत जैसे भयंकर युद्ध का आयोजन कराया | अधर्म और अन्याय को समाप्त करने के लिये ही जरासंध और कंस का वध किया | बचपन से ही अनेक अलौकिक कार्य करके वे जनसाधारण की श्रद्धा और स्नेह के पात्र बन गए थे | वे सम्पूर्ण आर्यावर्त के सभी राजाओं के परम परामर्शदाता थे | उन्होंने अपने समय की कितनी ही अनावश्यक परम्पराओं को उखाड़ फेंका | गोवर्धनलीला इसका उदाहरण है | उन्होंने निरर्थक इन्द्रपूजा के विरुद्ध सार्थक गौपूजा की प्रथा चलाई | कृष्ण के युग में भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक नवीन विचारों, नवीन धार्मिक योजनाओं एवं नित्य नूतन आनन्द और मनोविनोद का वातावरण रहता था | उनकी महत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उस युग के सर्वपूज्य विद्याविद एवं वयोवृद्ध महात्मा भीष्म ने भी युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया था |
इस प्रकार श्रीकृष्ण प्रेममय, दयामय, दृढ़व्रती, धर्मात्मा, नीतिज्ञ, समाजवादी दार्शनिक, विचारक, राजनीतिज्ञ, लोकहितैषी, न्यायवान, क्षमावान, निर्भय, निरहंकार, तपस्वी एवं निष्काम कर्मयोगी थे | वे लौकिक मानवी शक्ति से कार्य करते हुए भी अलौकिक चरित्र के महामानव थे |
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मित्रों, आज हम सब भगवान श्रीकृष्ण का जन्म महोत्सव मना रहे हैं | तो सबसे पहले तो सभी को इस महापर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ | आज कहीं लोग व्रत उपवास आदि का पालन कर रहे होंगे, कहीं भगवान कृष्ण की लीलाओं को प्रदर्शित करती आकर्षक झाँकियाँ सजाई जाएँगी तो कहीं भगवान की लीलाओं का मंचन किया जाएगा और कहीं मटकी फोड़ी जाएँगी | मन्दिरों में तो पिछले कई दिनों से सजावट का कार्य चल रहा है | बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिन | वास्तव में श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व भारतीय इतिहास के लिये ही नहीं, विश्व इतिहास के लिये भी अलौकिक एवम् आकर्षक व्यक्तित्व है और सदा रहेगा | उन्होंने विश्व के मानव मात्र के कल्याण के लिये अपने जन्म से लेकर निर्वाण पर्यन्त अपनी सरस एवं मोहक लीलाओं तथा परम पावन उपदेशों से अन्तः एवं बाह्य दृष्टि द्वारा जो अमूल्य शिक्षण दिया था वह किसी वाणी अथवा लेखनी की वर्णनीय शक्ति एवं मन की कल्पना की सीमा में नहीं आ सकता | तथापि श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र, लीलाओं और उपदेशों पर तत्वतः विचार करने का ही प्रयास मुझ जैसी अल्पज्ञ ने किया है |
अवतारवादी शास्त्रों की मान्यता के अनुसार कृष्ण षोडश कला सम्पन्न पूर्णावतार होने के कारण “कृष्णस्तु भगवान स्वयम्” हैं | श्रीकृष्ण का चरित्र अत्यन्त दिव्य है । हर कोई उनकी ओर खिंचा चला जाता है । जो सबको अपनी ओर आकर्षित करे, भक्ति का मार्ग प्रशस्त करे, भक्तों के पाप दूर करे, वही कृष्ण है । वह एक ऐसा आदर्श चरित्र है जो अर्जुन की मानसिक व्यथा का निदान करते समय एक मनोवैज्ञानिक, कंस जैसे असुर का संहार करते हुए एक धर्मावतार, स्वार्थ पोषित राजनीति का प्रतिकार करते हुए एक आदर्श राजनीतिज्ञ, विश्व मोहिनी बंसी बजैया के रूप में सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ, बृज वासियों के समक्ष प्रेमावतार, सुदामा के समक्ष एक आदर्श मित्र, सुदर्शन चक्रधारी के रूप में एक योद्धा व सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता हैं । उनके जीवन की छोटी से छोटी घटना से यह सिद्ध होता है कि वे सर्वैश्वर्य सम्पन्न थे | धर्म की साक्षात् मूर्ति थे | संसार के जिस जिस सम्बन्ध और जिस जिस स्तर पर जो जो व्यवहार हुआ करते हैं उन सबकी दृष्टि से और देश, काल, पात्र, अवस्था, अधिकार आदि भेदों से व्यक्ति के जितने भिन्न भिन्न धर्म अथवा कर्तव्य हुआ करते हैं उन सबमें कृष्ण ने अपने विचार, व्यवहार और आचरण से एक सद्गुरु की भांति पथ प्रदर्शन किया है | कर्तव्य चाहे माता पिता के प्रति रहा हो, चाहे गुरु-ब्राह्मण के प्रति, चाहे बड़े भाई के प्रति अथवा गौ माता और अपने भक्तों के प्रति रहा हो, चाहे शत्रु से व्यवहार हो अथवा मित्र से, चाहे शिष्य और शरणागत हो – सर्वत्र ही धर्म का उच्चतम स्वरूप और कर्तव्यपालन का सार्वभौम आदर्श उनके आचरण में प्रकट होता है | राजनीति के क्षेत्र में उनकी अनुपम एवम् अद्वितीय राजनीतिक कुशलता व्यक्त होती है | समग्र विश्व के प्रति व्यवहार में उनका आचरण “अमानी मानदो मान्यः” अर्थात् अहंकार रहित होकर दूसरों को मान देने वाला सिद्ध होता है | राजनीति में भी किस प्रकार राग द्वेष से रहित होकर निष्पक्ष और निष्कपट व्यवहार किया जा सकता है इसका उदाहरण भी कृष्ण के व्यक्तित्व के अतिरिक्त और कहीं ढूँढे भी नहीं मिल सकता |
श्रीकृष्ण जन्मोत्सव सामाजिक समता का उदाहरण है । श्रीकृष्ण ने नगर के कारागार में जन्म लिया और गाँव में खेलते हुए उनका बचपन व्यतीत हुआ । इस प्रकार श्रीकृष्ण का चरित्र गाँव व नगर की संस्कृति को जोड़ता है | गरीब को अमीर से जोड़ता है | गो चरक से गीता उपदेशक होना, दुष्ट कंस को मारकर महाराज उग्रसेन को उनका राज्य लौटाना, धनी घराने का होकर गरीब ग्वाल बाल एवं गोपियों के घर जाकर माखन खाना आदि जो लीलाएँ हैं ये सब एक सफल राष्ट्रीय महामानव होने के उदाहरण हैं । कोई भी साधारण मानव श्रीकृष्ण की तरह समाज की प्रत्येक स्थिति को छूकर, सबका प्रिय होकर राष्ट्रोद्धारक बन सकता है । कंस के वीर राक्षसों को पल में मारने वाला अपने प्रिय ग्वालों से पिट जाता है । खेल में हार जाता है । यही है दिव्य प्रेम की स्थापना का उदाहरण । भगवान श्रीकृष्ण की यही लीलाएँ सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रप्रियता का प्रेरक मानदण्ड हैं । यही कारण है कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अनूठा, अपूर्व और अनुपमेय है । श्रीकृष्ण अतीत के होते हुए भी वर्तमान की शिक्षा और भविष्य की अमूल्य धरोहर हैं । उनका व्यक्तित्व इतना विराट है कि उसे पूर्ण रूप से समझ पाना वास्तव में कठिन कार्य है । हमारे अध्यात्म के विराट आकाश में श्रीकृष्ण ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों व ऊँचाइयों पर जाकर भी न तो गम्भीर ही दिखाई देते हैं और न ही उदासीन दीख पड़ते हैं, अपितु पूर्ण रूप से जीवनी शक्ति से भरपूर व्यक्तित्व हैं | श्रीकृष्ण के चरित्र में नृत्य है, गीत है, प्रीति है, समर्पण है, हास्य है, रास है, और है आवश्यकता पड़ने पर युद्ध को भी स्वीकार कर लेने की मानसिकता । धर्म व सत्य की रक्षा के लिए महायुद्ध का उद्घोष है । एक हाथ में बाँसुरी और दूसरे हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर महा-इतिहास रचने वाला कोई अन्य व्यक्तित्व नहीं हुआ संसार में । कृष्ण के चरित्र में कहीं किसी प्रकार का निषेध नहीं है, जीवन के प्रत्येक पल को, प्रत्येक पदार्थ को, प्रत्येक घटना को समग्रता के साथ स्वीकार करने का भाव है | वे प्रेम करते हैं तो पूर्ण रूप से उसमें डूब जाते हैं, मित्रता करते हैं तो उसमें भी पूर्ण निष्ठावान रहते हैं, और जब युद्ध स्वीकार करते हैं तो उसमें भी पूर्ण स्वीकृति होती है |
कालिया नामक नाग को नाथने की लोक प्रसिद्ध लीला का तात्पर्य यही है कि स्वार्थपरता, निर्दयता आदि ऐसे दोष हैं जो जीवन रूपी यमुना के निर्मल जल को विषाक्त कर देते हैं | जब तक शुद्ध सात्विक बुद्धि रूपी कृष्ण अपने पैरों से इन दोषों को कुचल कर नष्ट नहीं कर देता तब तक जीवन सरिता की सरसता एवं शुद्धता असम्भव रहेगी | इसी प्रकार गोपालों और ब्राह्मणों की कथा | कृष्ण ने अपने सखाओं को याज्ञिक ब्राह्मणों के पास अन्न प्राप्त करने भेजा | उनकी पत्नियों ने उन्हें सादर भोजन दिया | किन्तु उन नीरस वेदपाठी ब्राह्मणों ने उन्हें फटकार दिया | इस कथा का तात्पर्य यह है कि केवल दम्भ प्रदर्शन के लिये किया गया कर्मकाण्ड और वेदपाठ केवल आत्मप्रवंचना है | ममता और निरभिमानता ही जीवन का सार है | बालक ही भगवान का साकार रूप हैं | अतः प्रेमपूर्वक की गई बाल सेवा ही सच्ची ईश सेवा है | इसी प्रकार उनकी बाललीलाओं में सर्वत्र ही कोई न कोई रहस्य दृष्टिगोचर होता है | न केवल बाललीलाओं में, वरन् समस्त लीलाओं में ही कोई न कोई रहस्य, कोई न कोई अर्थ छिपा हुआ है | कृष्ण का चरित्र सौन्दर्य, शक्ति और शील का समन्वय था | अपनी शक्ति और सामर्थ्य से ही उन्होंने बृजवासियों को अनेक विपत्तियों से बचाया था | गोवर्धन पर्वत के नीचे समस्त ग्रामवासियों को एकत्र करके उन्हें घोर वर्षा से बचाते समय कृष्ण ने एक सेवक के रूप में कार्य किया था | दावानल में भस्म होते ग्वालों की रक्षा की | जाति समाज और देश की रक्षा के लिये कृष्ण ने हर सम्भव प्रयास किये | पूतना मोक्ष, नलकूबर और मणिग्रीव का उद्धार, द्रोपदी पर कृपा, दु:शासन को अपनी समस्त सेना युद्ध के लिये देकर अर्जुन की ओर से अकेले निहत्थे खड़े हो जाना, अपनी सेना का संहार होते देखकर भी विचलित न होना – यह सब कृष्ण जैसे योगी के लिये ही सम्भव था | अपने कुटुम्बीजन भी जब मिलकर नहीं बैठ सके तो उनका भी सर्वनाश ही हुआ – इससे भी यही स्पष्ट होता है कि यदि समाज को उन्नति के शिखर पर पहुँचाना है तो व्यर्थ की बातों को लेकर अशान्ति तथा वैमनस्य उत्पन्न करने से कोई लाभ नहीं होगा, ऐसा करने से तो विनाश ही होगा उन्नति नहीं | साथ ही समाज को यदि उन्नति की ओर अग्रसर होना है तो प्रत्येक व्यक्ति को व्यावहारिक भी होना होगा | कृष्ण-सुदामा का प्रसंग इसका उत्कृष्ट उदाहरण है | श्रीकृष्ण जैसा ऐश्वर्यसम्पन्न व्यक्ति सुदामा जैसे निर्धन व्यक्ति के तन्दुल निकालकर खा लेता है और सुदामा को ऐश्वर्यशाली बना देता है | यह घटना एक ओर जहाँ मित्रता में आस्था को दर्शाती है वहीं सामन्तवादी मनोवृत्ति का भी मखौल उड़ाती है और प्राणीमात्र में समता की स्थापना करती है | सुदामा अध्ययन, मनन, रचना-सर्जना में ऐसे डूबे कि बुद्धि वैभव को ही स्वधर्म मान उसी में जीवन की सार्थकता खोजने लगे | परिवार पालन के लिये धन की भी आवश्यकता होती है इस सत्य को वे भुला ही बैठे | परिग्रह और अभाव में अन्तर भुला बैठे थे सुदामा | जबकि आवश्यकता है दोनों में सन्तुलन स्थापित करने की | परिग्रह मत करो पर अभावग्रस्त भी मत रहो | श्री कृष्ण यह भी सिद्ध करना चाहते थे कि व्यक्ति को व्यावहारिक भी होना चाहिये |
श्रीकृष्ण को रसिक बिहारी, लीलाप्रिय, सहस्ररमणीप्रिय आदि न जाने कितने नामों से सम्बोधित किया जाता है, किन्तु श्रीकृष्ण एक नवीन प्रकार की नैतिकता को स्थापित करने वाले एक महान व्यक्तित्व थे | भौमासुर के विनाश के पश्चात् उसके द्वारा बन्दी बनाई गई सोलह हज़ार स्त्रियों को कृष्ण ने इसलिये स्वीकार किया क्योंकि वे जानते थे कि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा | वे जानते थे कि एक अनाचारी की क़ैद से छूटी इन निर्दोष युवतियों को सदा के लिये कुलटा मान लिया जाएगा और कोई भी इनके साथ विवाह के लिये आगे नहीं आएगा | उनके सम्मान की रक्षा के लिये तथा समाज के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करने के लिये कृष्ण ने उन्हें स्वीकार किया | इसी प्रकार रासलीला | जो लोग कृष्ण को केवल रास रचैया भर मानते हैं वास्तव में वे लोग रास के अर्थ तथा मर्म को ही भली भांति नहीं समझ पाए हैं | कृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य करना कोई साधारण घटना नहीं है | भाव, ताल, नृत्य, छन्द, गीत, रूपक एवं लीलाभिनय से युक्त यह रास – जिसमें रस का उद्भव मन से होता है तथा जो पूर्ण रूप से अलौकिक और आध्यात्मिक है – वैष्णव परम्पराओं से लेकर जैन परम्पराओं तक समस्त चिन्तन परम्पराओं में ज्ञान का आलोक लेकर आया | समस्त ब्रह्माण्ड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरूष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की ही तो एक झलक है । उस रास में किसी प्रकार की काम भावना नहीं है | कृष्ण पुरूष तत्व है और गोपिकाएँ प्रकृति तत्व । इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का नृत्य प्रकृति और पुरूष का महानृत्य है । विराट प्रकृति और विराट पुरूष का महारास है यह | तभी तो प्रत्येक गोपी यही अनुभव करती है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं । सांसारिक दृष्टि से यह रासनृत्य मनोरंजन मात्र हो सकता है, किन्तु यह नृत्य पूर्ण रूप से पारमार्थिक नृत्य है | एक ओर महारास तो दूसरी ओर वस्त्रहरण द्वारा गोपियों को सामजिक मर्यादा का उपदेश | एक ओर जहाँ चीर हरण की लीला में प्रेम का सामूहिक विकास होने के साथ गोपियों के लिये लोकमर्यादा का उपदेश भी है तो वहीं रासलीला में कृष्ण तथा गोपियों के प्रेम का चरम उत्कर्ष बिंदु है जहाँ किसी भी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक गोपनीयता अथवा रहस्य का आवरण नहीं रहता | राग योग की इस दशा में बृहदारण्यक का यह कथन सिद्ध होता है “जैसे पुरुष को अपने आलिंगनकाल में बाहर भीतर की कोई सुधि नहीं रहती उसी प्रकार जब उपासक प्राज्ञ द्वारा आलिंगित होता है तब वह अपनी सुध बुध खो बैठता है |”
कृष्ण गोपियों के प्रेम में आसक्त दिखाई देते तो हैं, किन्तु उनका वह आकर्षण भी उन्हें मथुरा में उनके कर्तव्य से विमुख नहीं कर पाता | इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का प्रेम प्रसंग कामुकता का खण्डन करके लोकहित की भावना का समर्थन करता है | उनकी इसी भावना से प्रेरित होकर ही विरहाकुल राधा भी अपना विरह भूल ग्रामवासियों की सेवा में लग जाती हैं और एक सच्ची तथा निष्ठावान समाजसेविका बन जाती हैं | कृष्ण एक ऐसा विराट स्वरूप हैं कि किसी को उनका बालरूप पसन्द आता है तो कोई उन्हें आराध्य के रूप में देखता है तो कोई सखा के रूप में | किसी को उनका मोर मुकुट और पीताम्बरधारी, यमुना के तट पर कदम्ब वृक्ष के नीचे वंशी बजाता हुआ प्राणप्रिया राधा के साथ प्रेम रचाता प्रेमी का रूप भाता है तो कोई उनके महाभारत के पराक्रमी और रणनीति के ज्ञाता योद्धा के रूप की सराहना करता है और उन्हें युगपुरुष मानता है | वास्तव में श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूष हैं ।
आज की राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं के निदान के लिये कृष्ण के चरित्र से प्रेरणा ली जा सकती है | आज के नेता लोग यदि कृष्ण की विलक्षण राजनीति को समझ जाएँ तो देश का कल्याण हो जाए | इसी प्रकार आज का युवा यदि समझ जाए कि कृष्ण ने जीवन से पलायन करने का अथवा निषेध का सन्देश कभी नहीं दिया तो बहुत सी कुण्ठाओं से मुक्ति पा सकता है | कृष्ण एक ओर जहाँ महान योगी थे तो दूसरी ओर ऐसे ऋषि भी थे कि जिन्होंने कभी वासना को महत्त्व नहीं दिया, जीवन के रस को महत्व दिया । वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान और सर्व का कल्याण व शुभ चाहने वाले हैं | अत्यन्त रूपवान होने के साथ साथ सत् असत् के ज्ञाता भी हैं । उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नहीं मिला वरन् एक महान कर्मयोगी और दार्शनिक भी प्राप्त हुआ, जिसका गीता ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है । आर्य जीवनचर्या का सम्पूर्ण विकास हमें कृष्ण के चरित्र में सर्वत्र दिखाई देता है । जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसे उन्होंने अपनी प्रतिभा के द्वारा प्रभावित नहीं किया | सर्वत्र उनकी अद्भुत मेधा तथा प्रतिभा के दर्शन होते हैं | एक ओर वे महान् राजनीतिज्ञ, क्रान्तिविधाता, धर्म पर आधारित नवीन साम्राज्य के स्रष्टा राष्ट्रनायक के रूप में दिखाई पड़ते हैं तो दूसरी ओर धर्म, अध्यात्म, दर्शन तथा नीति के सूक्ष्म चिन्तक, विवेचक तथा प्रचारक के रूप में भी उनकी भूमिका कम महत्व की नहीं है ।
महाभारत के युग में सामाजिक पतन के लक्षण दिखाई पड़ने लगे थे | गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था जन्मना जातियों के रूप में बदल चुकी थी । ब्राह्मण वर्ग अपनी स्वभावगत शुचिता, लोकोपकार भावना, त्याग, सहिष्णुता तथा सम्मान के प्रति तटस्थता जैसे सद्गुणों को भुलाकर संग्रहशील, अहंकारी तथा असहिष्णु बन चुका था । आचार्य द्रोण जैसे शस्त्र तथा शास्त्र में निष्णात ब्राह्मण अपनी अस्मिता को भूलकर और अपने अपमान को सहकर भी कुरुवंशी राजकुमारों को उनके महलों में ही शिक्षा देकर उदरपूर्ति कर रहे थे । कहाँ तो गुरुकुलों का वह युग था जिसमें महान से महान राजा महाराजाओं के पुत्र भी शिक्षा ग्रहण के लिए राजप्रासादों को छोड़कर आचार्यकुलों में रहते थे और त्याग, अनुशासन एवं संयम का जीवन व्यतीत करते थे | इसके विपरीत महाभारतयुग में ऐसा समय आया जब कुरुवृद्ध भीष्म के आदेश से द्रोणाचार्य ने राजमहल को ही विद्यालय का रूप दे दिया था । आज के विश्वविद्यालयों का सम्भवतः प्राचीन रूप यही था जहाँ शिक्षक को शिष्य द्वारा प्रदत्त शुल्क लेकर उसे पढ़ाना था । इस कुरुवंशीय विश्वविद्यालय का प्रथम स्नातक तो दुर्योधन ही था जिसके अनिष्ट कार्यों ने देश के भविष्य को दीर्घ काल के लिए अन्धकारपूर्ण बना दिया था । ऐसी दुर्व्यवस्था वाले कुरुराज्य को नष्ट करके पुनः उसी संयम, त्याग, काम-क्रोध-लोभ-मोह से रहित सर्वजनहितकारी व्यवस्था को पुनर्जीवित करना था | उनके समय में भारतवर्ष सुदूर उत्तर में गान्धार (आज का अफगानिस्तान) से लेकर दक्षिण की सह्याद्रि पर्वतमाला तक क्षत्रियों के छोटे-छोटे स्वतन्त्र किन्तु निरंकुश राज्यों में विभक्त हो चुका था । उन्हें एक सूत्र में पिरोकर समग्र भारतखण्ड को एक सुदृढ़ राजनीतिक इकाई के रूप में पिरोनेवाला कोई नहीं था । एक चक्रवर्ती प्रजापालक सम्राट् के न होने से माण्डलिक राजा नितान्त स्वेच्छाचारी, प्रजापीड़क तथा अन्यायी हो गये थे। मथुरा का कंस, मगध का जरासन्ध, चेदि-देश का शिशुपाल तथा हस्तिनापुर के कौरव सभी दुष्ट, विलासी, दुराचारी तथा ऐश्वर्यमद में प्रमत्त हो रहे थे । कृष्ण ने अपनी नीतिमत्ता, कूटनीतिक चातुर्य तथा सूझबूझ से इन सभी अनाचारियों को जड़ से समाप्त करके धर्मराज की उपाधि धारण करने वाले अजातशत्रु युधिष्ठिर को आर्यावर्त के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर देश में चक्रवर्ती धर्मराज्य स्थापित किया | इसी प्रकार समकालीन सामाजिक दुरवस्था, विषमता तथा नष्ट हुए नैतिक मूल्यों के प्रति वे पूर्ण जागरूक थे । उन्होंने पतनोन्मुख समाज को ऊपर उठाया । स्त्रियों, शूद्र कही जाने वाली जातियों, वनवासियों, पीड़ितों तथा शोषितों के प्रति उनमें अशेष सम्वेदना तथा सहानुभूति थी । गान्धारी, कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा आदि आर्यकुल की नारियों को समुचित सम्मान देकर उनकी नारी वर्ग की प्रतिष्ठा बढ़ाई ।
जिस प्रकार वे नवीन साम्राज्य निर्माता तथा स्वराज्यस्रष्टा युगपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए, उसी प्रकार अध्यात्म तथा तत्व-चिन्तन के क्षेत्र में भी उनकी प्रवृत्तियाँ चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुकी थीं । सुख और दुःख को समान समझने वाले, लाभ तथा हानि, जय और पराजय जैसे द्वन्द्वों को समान मानने वाले अनुद्विग्न, वीतराग तथा जल में रहने वाले कमलपत्र के समान वे सर्वथा निर्लेप तथा स्थितप्रज्ञ रहे । प्रवृत्ति और निवृत्ति, श्रेय व प्रेय, ज्ञान और कर्म, ऐहिक और पारलौकिक जैसी प्रत्यक्ष में विरोधी दीखने वाली प्रवृत्तियों में अपूर्व सामञ्जस्य स्थापित कर उन्हें निज जीवन में क्रियान्वित करना कृष्ण जैसे महामानव के लिए ही सम्भव था । उन्होंने धर्म के दोनों लक्ष्यों अभ्युदय और निःश्रेयस को सार्थक किया । अतः यह निरपवाद रूप में कहा जा सकता है और नि:संकोच स्वीकार किया जा सकता है कि कृष्ण का जीवन आर्य आदर्शों की चरम परिणति है । भारत में नाना सम्प्रदायों और भेदभावों के रहते हुए भी यदि एक केन्द्रीय मंच हो सकता है तो वह है श्रीकृष्णोपदिष्ट धर्ममार्ग | केवल इसी से हमारा राष्ट्रीय संगठन हो सकता है | श्रीकृष्ण के चरित्र में सर्वत्र समदर्शिता प्रकट होती है | सेवा भाव की वे साकार मूर्ति हैं | विश्वमंगल के लिये ही उन्होंने महाभारत जैसे भयंकर युद्ध का आयोजन कराया | अधर्म और अन्याय को समाप्त करने के लिये ही जरासंध और कंस का वध किया | बचपन से ही अनेक अलौकिक कार्य करके वे जनसाधारण की श्रद्धा और स्नेह के पात्र बन गए थे | वे सम्पूर्ण आर्यावर्त के सभी राजाओं के परम परामर्शदाता थे | उन्होंने अपने समय की कितनी ही अनावश्यक परम्पराओं को उखाड़ फेंका | गोवर्धनलीला इसका उदाहरण है | उन्होंने निरर्थक इन्द्रपूजा के विरुद्ध सार्थक गौपूजा की प्रथा चलाई | कृष्ण के युग में भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक नवीन विचारों, नवीन धार्मिक योजनाओं एवं नित्य नूतन आनन्द और मनोविनोद का वातावरण रहता था | उनकी महत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उस युग के सर्वपूज्य विद्याविद एवं वयोवृद्ध महात्मा भीष्म ने भी युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया था |
इस प्रकार श्रीकृष्ण प्रेममय, दयामय, दृढ़व्रती, धर्मात्मा, नीतिज्ञ, समाजवादी दार्शनिक, विचारक, राजनीतिज्ञ, लोकहितैषी, न्यायवान, क्षमावान, निर्भय, निरहंकार, तपस्वी एवं निष्काम कर्मयोगी थे | वे लौकिक मानवी शक्ति से कार्य करते हुए भी अलौकिक चरित्र के महामानव थे |