अपनी बिटिया के विवाह की तैयारियों में आजकल व्यस्त हूँ, और जैसा कि हर परिवार में हर ब्याह शादी में होता है – समस्त व्यवस्थाएँ उचित रूप से हो जाएँ इसके लिए मित्रों – परिचितों तथा परिवारीजनों से सलाह भी लगभग हर बात में लेनी आवश्यक हो जाती है, क्योंकि विवाह कोई छोटा सा आयोजन नहीं होता – वर-वधु के माता पिता के साथ साथ समूचा परिवार, सारे सगे सम्बन्धी, सारे मित्र इस पवित्र यज्ञ के साक्षी बनते हैं | तो मैं और मेरे पति डॉ दिनेश शर्मा – जो पारम्परिक तथा वैदिक समृद्धि से पूर्ण एक ऐसे परिवार से हैं जहाँ हर समय अग्निहोत्र की अग्नि प्रज्वलित रहती थी – भी अपने कुछ घनिष्ठ मित्रों के साथ विचार विमर्श में लगे थे | बातों बातों में हमारे कुछ मित्रों ने तर्क प्रस्तुत किया कि शादी का क्या है, बस लड़का लड़की को अच्छी तरह सजा कर जयमाल करके अच्छे से दावत कर दो, कुछ बैण्ड बाजा हो जाए – बस हो गई शादी | विवाह संस्कारों के सम्बन्ध में कुछ भ्रान्तियाँ और कुछ अविश्वास उनके मन में थे | हम दोनों ही पति पत्नी इस विषय में कोई प्रकाण्ड पण्डित तो नहीं हैं, फिर भी जैसा कुछ शास्त्रों से अध्ययन किया, परिवार में परम्परा से सीखा और कुछ अपने अनुभवों के आधार पर हमने उनके प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया, और वे हमारे उत्तरों से आश्वस्त भी लगे |
जहाँ तक जयमाल आदि का तथा अन्य प्रकार के मनोरंजन का – जैसे बैण्ड-बाजा-बरात का प्रश्न है, तो जयमाल तो राजाओं की प्रथा थी – जब स्वयंवर का आयोजन किया जाता था तो विजयी राजकुमार को कन्या जयमाल पहनाकर उसका स्वागत करती थी और उसके साथ विवाह के लिए अपनी सहमति भी प्रदान करती थी | धीरे धीरे ये प्रथा विवाह संस्कार का एक आभिन्न अंग बन गई | वैसे देखा जाए तो इन सबसे विवाह संस्कार करते समय उत्साह में वृद्धि तो होती ही है, साथ ही इतने सारे बाराती विवाह संस्कार के साक्षी भी बनते हैं और वर-वधु को शुभकामनाएँ भी देते हैं जो उनके सुखद दाम्पत्य जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है | इसलिए ये सारी प्रक्रियाएँ किसी भी विवाह संस्कार के समय अवश्य की जानी चाहियें | लेकिन विवाह की प्रक्रिया में किये गए संस्कारों के बिना विवाह अधूरा ही रहता है | हर जाति-धर्म-सम्प्रदाय-देश में विवाह के लिए सबके अपने अपने संस्कार हैं |
वास्तव में विवाह संस्कार जीवन की एक आवश्यक प्रक्रिया है – जीवन का एक अभिन्न अंग | भारतीय षोडश संस्कारों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण संस्कार विवाह संस्कार ही है | हर समाज में, हर देश में, हर सम्प्रदाय में उनकी अपनी व्यवस्थाओं के अनुकूल विवाह संस्कार का विधान है | हिन्दू सम्प्रदाय में जिसे हम “वैदिक पद्धति द्वारा किया गया विवाह संस्कार” कहते हैं उसकी भी अपनी एक प्रणाली है | वेदोक्त आठ विवाहों में सबसे अधिक पवित्र विवाह ब्राह्म विवाह माना जाता है, जिसमें माता पिता की अनुमति से वर और कन्या एक दूसरे को पसन्द करके विधिवत संस्कारों से संस्कृत होकर विवाह बन्धन में बँधते हैं | और इस प्रकार ये विवाह संस्था मानव समाज की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और सबसे छोटी इकाई “परिवार” का निर्माण करने वाली धार्मिक और सामाजिक संस्था बन जाती है |
‘विवाह’ शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है । इसका पहला अर्थ है वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति जिसके द्वारा पति-पत्नी के स्थायी सम्बन्ध का निर्माण होता है । विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जाने वाला दाम्पत्य सम्बन्ध और पारिवारिक जीवन भी होता है । इस सम्बन्ध से पति-पत्नी को जहाँ एक ओर अनेक प्रकार के अधिकार प्राप्त होते हैं वहीं दूसरी ओर दोनों को ही अनेक कर्तव्यों और दायित्वों का भी निर्वाह करना होता है । व्यक्तिगत स्तर पर देखा जाए तो विवाह पति-पत्नी के मध्य परस्पर मैत्री और साझेदारी की भावना को भी बल देता है तथा धार्मिक, आध्यात्मिक और आर्थिक विकास की ओर दोनों को एक साथ अग्रसर करता है । दोनों के सुख, विकास और पूर्णता के लिए आवश्यक सेवा, सहयोग, प्रेम और निःस्वार्थ त्याग के अनेक गुणों की शिक्षा वैवाहिक जीवन से मिलती है । नर-नारी की अनेक आकांक्षाएँ विवाह एवं संतान-प्राप्ति द्वारा पूर्ण होती हैं ।
मेरी अपनी मान्यता है कि न केवल हिन्दू धर्म में बल्कि संसार के सभी सभ्य समाजों में जब युवक युवती शारीरिक तथा मानसिक रूप से परिपक्व होकर परिवार निर्माण के उत्तरदायित्व का निर्वाह करने योग्य हो जाते हैं तब उनका विवाह संस्कार किया जाता है | और भारतीय संस्कृति के अनुसार तो विवाह कोई शारीरिक अथवा सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं होता, बल्कि यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है । इसलिए कहा गया है ‘धन्यो गृहस्थाश्रमः’ । सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं। वहीं अपने संसाधनों से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमों के साधकों को वाञ्छित सहयोग भी प्रदान करते हैं | प्राचीन काल में तो शेष तीनों आश्रमों के भोजनादि की व्यवस्था का भार गृहस्थ पर ही होता था |
विवाह केवल एक दूसरे से नितान्त अपरिचित, अलग अलग परिवेश में पले बढ़े दो व्यक्तियों का शारीरिक सम्पर्क भर ही नहीं है अपितु दो आत्माओं का पवित्र बन्धन है । दो प्राणी अपने अलग-अलग अस्तित्वों और अहंभाव को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं । स्त्री और पुरुष दोनों में परमात्मा ने कुछ विशेषताएँ और कुछ अपूणर्ताएँ दी हुई हैं । विवाह संस्कार के द्वारा संस्कृत होकर जब ये दो व्यक्ति परस्पर मिलते हैं तो वे अपने इस सम्मिलन से एक-दूसरे की अपूर्णताओं की अपनी अपनी विशेषताओं से पूर्ण कर देते हैं, और इस प्रकार एक समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता है । इसलिए विवाह को सामान्यतया मानव जीवन की एक आवश्यकता माना गया है । एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं और भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे हुए दो पहियों की तरह प्रगति-पथ पर अग्रसर होते जाना ही विवाह का वास्तविक उद्देश्य है । दो व्यक्तित्वों का ये सम्मिलन किसी काम वासना की पूर्ति के लिए नहीं होता, बल्कि दो आत्माओं के इस पवित्र मिलन से एक ऐसी महान शक्ति का निर्माण होता है जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक सिद्ध हो सके । उसी प्रकार जैसे शिव-पार्वती का मिलन केवल काम भावना से प्रेरित होकर नहीं हुआ था, अपितु कार्तिकेय के जन्म के निमित्त हुआ था जिससे कि तारकासुर जैसे राक्षस का संहार होकर समाज में पुनः सुख शान्ति की स्थापना हो सके | हिंदू समाज में वैदिक युग से यह विश्वास प्रचलित है कि पत्नी मनुष्य का आधा अंश है, उसी प्रकार जिस प्रकार पुरुष प्रकृति के बिना और शिव शक्ति के बिना अधूरा है । यही कारण है कि विवाह संस्कार के साथ इसी प्रकार की उदात्त भावना जुड़ी होने के कारण इस संस्कार को एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में पूर्ण वैदिक विधि विधान के साथ शुभ मुहूर्त में सम्पन्न किया जाता है |