चलते चलते कहाँ आ गई, नहीं तनिक है भान मुझे |
मगर नहीं ये मंज़िल मेरी, इतना है अनुमान मुझे ||
मैं हूँ ऐसा पुष्प, डाल से टूट गिरा जो माटी में
उसके स्नेहिल स्पर्शों से गन्ध बिखेरी कण कण में |
मन में था संकल्प, कि जग को महकाना है अभी मुझे ||
चाहें कितनी आँधी आएँ, चाहें कितने तूफां आएँ
चाहें सारे पुष्प धूल में पात पात हो बिखर पड़ें |
लेकिन आँधी तूफ़ानों में उड़ते जाना अभी मुझे ||
युगों युगों से चली आ रही, ठौर मिला ना तनिक मुझे
थक कर हूँ मैं चूर हो गई, मगर नहीं विश्राम मुझे |
पग में छले पड़े, मगर चलते जाना है अभी मुझे ||
जिसे खोजने निकली उसका पता नहीं है याद मुझे
किससे पूछूँ, अलग अलग हैं राह दिखाते सभी मुझे |
अन्तर में है छिपा हुआ वह, मगर नहीं है ज्ञान मुझे ||