कर्ममार्ग पर अग्रसर होने में ऐसा अनेक बार हो सकता है कि व्यक्ति कर्तव्य और अकर्तव्य का भेद बुला बैठे और संशयग्रस्त हो जाए | जब जब भी इस प्रकार के संशय की स्थिति आती है कि व्यक्ति को कर्म अकर्म का कोई ज्ञान नहीं रहता तब तब श्रीकृष्ण जैसे किसी मनश्चिकित्सक की आवश्यकता होती है |
रामचरितमानस में एक प्रसंग आता है कि जामवंत, हनुमान, अंगद आदि वानर सेना के साथ माता सीता का पता लगाने जाते हैं | बहुत समय व्यतीत हो जाता है किन्तु वे अपने कार्य में सफल नही हो पाते | सब सोचते हैं कि कार्य पूर्ण किये बिना यदि वापस गए तो सुग्रीव हमें जीवित नहीं छोड़ेंगे, और यदि यहाँ पड़े रहे तो वैसे ही भूख प्यास से हम सब मारे जाएँगे | क्या करें क्या न करें | वही किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति | तभी जटायु का भाई सम्पाति वहाँ आता है और बताता है कि माता सीता को रावण ने अशोक वाटिका में बंदी बनाकर रखा हुआ है | मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ, किन्तु तुम लोगों को राम का यह कार्य अवश्य करना चाहिये | वानर शत योजन सागर पार करके लंका जाने में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहे थे | जामवन्त को लगता था कि वे बूढ़े हो चुके हैं | अंगद और हनुमान भी सशंकित थे कि वे लोग सम्भवतः लंका नहीं जा पाएँगे | अपना बल ही वे भूल चुके थे | तब जामवन्त ने कहा :
“पवन तनय, बल पवन समाना, बुद्धि बिबेक बिग्यान निधाना |
कवन सो काज कठिन जग माहीं, जो नहिं होत तात तुम्ह पाहीं |
राम काज लगि तव अवतारा, सुनतहिं भयऊ पर्वताकारा ||” – किष्किन्धाकाण्ड
“हनुमान तुम चुप क्यों बैठे हो ? तुम्हारा बल तो पवन के समान है | बुद्धि, विवेक और विज्ञान के तुम निधान हो | संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जो तुम कर न सको | तुम्हारा तो जन्म ही भगवान के कार्य के लिये हुआ है |” इतना सुनकर हनुमान को अपनी शक्ति का स्मरण हुआ और बोले “यदि ऐसा है तो मैं अभी जाता हूँ और माता सीता को देखकर वापस आता हूँ | कार्य पूर्ण होने पर मुझे भी हर्ष होगा – जब लगि आवौं सीतहि देखी, होहहि काजु मोहि हरष विसेषी – सुन्दरकाण्ड…” और वे तुरंत पर्वताकार होकर लंका की ओर चल दिये | इस प्रकार हनुमान के संशय को जामवंत ने दूर किया |
अर्जुन के साथ भी यही स्थिति थी | उन्हें भी मोहवश अपने लक्ष्य का भान नहीं रहा था | वही उन्हें बताना था | इसीलिये उन्होंने कहा कि समस्त कामनाओं का त्याग करके कर्तव्य कर्म करो | ज्ञानी व्यक्ति का यही लक्षण है | अर्जुन ने फिर संशय किया कि यदि ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर आप मुझे हिंसा जैसे क्रूर कर्म में क्यों लगाते हैं ? भगवान ने उत्तर दिया कि तुम्हारा कर्तव्य कर्म युद्ध ही है | तीनों लोकों में मेरा तो कोई कर्तव्य कर्म नहीं है, फिर भी मैं कर्म करता हूँ | यदि मैं ऐसा नहीं करूँगा तो लोक मर्यादा का उल्लंघन होगा |
संशय अभी ही दूर नहीं हुआ था | अतः बहिर्मुखी से अंतर्मुखी होने की प्रक्रिया आरम्भ हुई | अर्थात् सूक्ष्म मनोविज्ञान | सर्वप्रथम अर्जुन को भगवान ने विराट स्वरूप के दर्शन कराए | युद्ध में मरने वाले लोगों का समूह दिखाया | ताकि अर्जुन सोचने को विवश हो जाएँ कि यह युद्ध तथा यह जनहानि अवश्यम्भावी है | अतः धर्म की रक्षा हेतु युद्ध के लिये तत्पर होना ही पड़ेगा | प्रश्न मात्र राज्य प्राप्ति का ही नहीं था | प्रश्न था कि कायरतापूर्वक अन्याय तथा अत्याचार होते देखते रहना क्या उचित है ? अर्जुन सोचने को विवश तो हुए, किन्तु ऊहापोह की स्थिति फिर भी बनी ही रही | अतः भगवान ने एक लीला रची |
भगवान ने सोचा अभी पूरा झटका नहीं लगा है | उधर एक दिन जब अर्जुन का रथ लेकर कहीं दूर गए हुए थे तो उनके पीछे कौरवों ने चक्रव्यूह का निर्माण कर दिया | उनकी योजना युधिष्ठिर को बन्दी बनाने की थी | क्योंकि अर्जुन के अतिरिक्त उनके किसी भाई अथवा उनकी सेना के किसी व्यक्ति को चक्रव्यूह का भेदन नहीं आता था | अर्जुन के सोलह वर्ष के पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदन तो आता था, किन्तु उससे बाहर निकलना नहीं आता था | कारण था कि अभिमन्यु जब सुभद्रा के गर्भ में थे तब अर्जुन ने सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदन की विधि बताई थी, किन्तु सुनते सुनते सुभद्रा को नींद आ गई थी और उससे बाहर निकलने की विधि वे नहीं सुन पाई थीं | इसलिये अभिमन्यु बस चक्रव्यूह भेदना ही जानते थे | किन्तु उस समय उन्हें युद्ध में भेजने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं था |
अभिमन्यु बड़ी वीरता से लड़े | उनका सारथि मारा गया | रथ टूट गया | सारे अस्त्र समाप्त हो गए तो उन्होंने टूटे हुए रथ के पहिये को ही अपना अस्त्र बना लिया | किन्तु अन्त में वह भी टूट गया और निहत्थे अभिमन्यु को कौरव सेना ने घेर कर मार डाला | सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि भीष्म और द्रोण जैसे गुरुजन – जिन पर अर्जुन को अगाध श्रद्धा थी और जिन्हें वे धर्म तथा मर्यादा के रक्षक समझते थे तथा जिनके कारण ही वे युद्ध से विमुख हो रहे थे – चुपचाप ये सब अनाचार होते देखते रहे थे | अन्ततः अर्जुन का इन दोनों गुरुजनों पर से भी विश्वास उठ गया और वे युद्ध के लिये तत्पर हो गए और उन्होंने सूर्यास्त से पूर्व ही चक्रव्यूह का निर्माण करने वाले जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा कर ली और कृष्ण की सहायता से उसमें वे सफल भी हुए |
इस प्रकार धीरे धीरे अर्जुन के मन का संशय तथा परिजनों की मृत्यु का भय दूर करके उन्हें युद्ध के लिये कटिबद्ध किया गया | जयद्रथ वध के समान ही महाभारत युद्ध में अनेक बार कृष्ण ने छल का सहारा लिया | जैसे “अश्वत्थामा मृतः” के शोर से शत्रुसेना में भगदड़ मचवा दी | भीष्म के सामने शिखण्डी को खड़ा कर दिया – इत्यादि इत्यादि… कारण – रोग को दूर करने के लिये कभी कभी कड़वी दवा भी देनी पड़ती है | मनःचिकित्सक भी अनेक बार अपने रोगियों के साथ सम्मोहन आदि की क्रिया करते हैं | भगवान को भी अपने एक मरीज़ अर्जुन के मन का विभ्रम दूर करके उन्हें युद्ध के लिये प्रेरित करना था | अतः जब जब अर्जुन भ्रमित होते – उनके मन में कोई शंका उत्पन्न होती – भगवान कोई न कोई झटका उन्हें दे देते | यही कारण था की महाभारत के युद्ध में प्रायः अधिकाँश नियमों को उठाकर ताक पर रख दिया गया था | क्योंकि उस समय की परिस्थितियों के अनुसार किसी प्रकार भी उस धर्मयुद्ध में विजय प्राप्त करके समस्त व्यवस्था को सुनियोजित रूप देना ही अर्जुन का लक्ष्य था | उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अर्जुन को समत्व बुद्धि अपनानी थी | उसे शत्रु मित्र छोटे बड़े सबके लिये समान भाव रखते हुए युद्ध में प्रवृत्त होना था | तभी एक ओर जहाँ वह दुर्योधन तथा दुशासन आदि कौरवों से युद्ध कर सकता था वहीं भीष्म और द्रोण जैसे गुरुजनों के साथ युद्ध करने में भी उसका संकोच समाप्त हो सकता था | इसीलिये कृष्ण ने उसे योग का उपदेश दिया | यही थी अन्तर्मुखी होने की प्रक्रिया – सूक्ष्म मनोविज्ञान, और इसी से समझ में आ सकता था जीवन का मूल्य |
“नेहाभिक्रमनाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते | स्वल्पम्प्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् || – २/४०” मनश्चिकित्सक का प्रथम कर्तव्य है रोगी को यथार्थ का ज्ञान कराना | आरम्भ ही अभिक्रम है – इस कर्मयोगरूप मोक्षमार्ग में अभिक्रम का नाश नहीं होता तथा चिकित्सा आदि की भाँति इसमें प्रत्यवाय अर्थात् विपरीत फल नहीं है | इस कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मरण रूप महान संसार भय से रक्षा करता है |
ध्यानयोग का बहिरंग साधन कर्म है | अतः जब तक ध्यानयोग पर आरूढ़ होने में समर्थ नहीं हो जाते तब तक कर्तव्य कर्म अवश्य करते रहना चाहिये | जैसे जैसे ध्यानयोग के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती जाती है – मनुष्य के समस्त कर्म स्वतः ही समाप्त होते जाते हैं |
यद्यपि कर्म कूप तालाब आदि छोटे जलाशयों की भांति अल्प फल देने वाले होते हैं – तो भी ज्ञान निष्ठा का अधिकार मिलने से पूर्व कर्म ही करते रहना चाहिये |
साथ ही, न तो कर्मफल में तृष्णा होनी चाहिये और न ही “यदि कर्मफलं न इष्यते किं कर्मणा दुःखरूपेण |” भाव से कर्म में अनासक्ति ही होनी चाहिये | फलतृष्णा रहित पुरुषार्थ द्वारा कार्य किये जाने पर अन्तःकरण की शुद्धि होकर ज्ञान की प्राप्ति होती है | अतः सिद्धि असिद्धि में समत्व भाव से कर्म करना चाहिये – समत्वं योग उच्यते |
सकाम कर्म करने वाले तो कृपण होते हैं | इसी कृपणता के कारण मनुष्य विक्षिप्त होता है, भयभीत होता है – यह सोचकर कि उसके किये गए कर्म का फल उसे मिलेगा भी अथवा नहीं, और मिलेगा तो कितने समय में मिलेगा, कैसा मिलेगा – आदि आदि… अर्थात् उसमें वणिकबुद्धि आ जाती है | जब बुद्धि इस मोहात्मक अविवेक का उल्लंघन कर जाती है तब वह बिल्कुल शुद्ध हो जाती है | समाधि में अर्थात् चित्त के समाधान द्वारा विक्षिप्त हुई बुद्धि अचल और दृढ़ हो जाती है – स्थिर हो जाती है | अतः यथार्थ ज्ञानरूप बुद्धि की स्थिरता चाहने वाले को इन्द्रियों को वश में करना अत्यन्त आवश्यक है | यही है अध्यात्मयुत मनोविज्ञान |
भारतीय जीवन दर्शन – भारतीय मनोविज्ञान – अध्यात्म पर ही आधारित है | भारतीय जन मानस में एक ही आस्था है “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः” और इस प्रकार अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा अन्ततः मोक्षरूप परम पद को प्राप्त करना | इस लक्ष्य से थोड़ा सा भी च्युत होते ही मति विभ्रम हो जाता है | यही कारण था कि भगवान का विराट रूप देखकर जब अर्जुन भयभीत और भ्रमित हो गए तब भगवान ने उनसे यही कहा कि तू युद्ध करे या न करे, इन सबका अन्त तो अवश्यम्भावी है | फिर क्यों नहीं तू निमित्त मात्र होकर युद्ध करता ? मन:चिकित्सक का वास्तविक कार्य यही है – यथार्थ का ज्ञान कराना – मनुष्य को उसकी ज़मीन से जोड़ना |
इस प्रकार अर्जुन को यह जो अन्तर्मुखी बनाने की प्रक्रिया हुई यही है सूक्ष्म मनोविज्ञान | तदुपरान्त भगवान ने अर्जुन को आत्मस्वरूप के दर्शन कराए और धीरे धीरे ज्ञान का बीजारोपण किया | इस प्रकार उनके मन को परिवर्तित करके उन्हें त्याग और वैराग्य का मार्ग बताया | जिससे उनके मन के विभ्रम का, मोह का नाश हुआ और वे कर्तव्य कर्म में प्रस्तुत हुए | यह थी अध्यात्म के द्वारा अर्जुन की मनश्चिकित्सा | युद्ध के लिये कटिबद्ध अर्जुन ने स्वयं कहा “नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || १८/७३” हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे स्मृति प्राप्त हुई | इसलिये मैं संशयरहित होकर स्थिरबुद्धि वाला हो गया हूँ और अब आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |
सम्भवतः कुछ लोगों का विचार हो कि निष्काम कर्मयोग तो सन्यासियों के लिये होता है, गृहस्थ जीवन जीने वालों के लिये, सामाजिक जीवन जीने वालों के लिये तो यह निष्काम कर्मयोग सम्भवतः उन्हें कर्म ही न करने दे | किन्तु यदि ऐसा होता तब तो अर्जुन – जो कि मोहवश क्षात्रधर्म से विमुख होकर गाण्डीव छोड़कर बैठ गए थे – गीता का उपदेश सुनकर सब कुछ छोड़ छाड़ कर सन्यासी हो जाते | किन्तु ऐसा नहीं हुआ | अपितु इस उपदेश को सुनकर ही उन्होंने आजीवन गृहस्थ रहकर अपने कर्तव्य का पालन किया | जब इस प्रकार आध्यात्म मार्ग से मन का विभ्रम दूर करके, उसे स्थिर करके कर्तव्य कर्म में प्रवृत्त किया जा सकता है, तो भला क्यों नहीं किसी भी बड़े से बड़े अपराधी का ह्रदय परिवर्तन नहीं किया जा सकता इस प्रकार अध्यात्म परक मन:चिकित्सा के द्वारा ? यहाँ तक कि सम्पूर्ण समाज का ह्रदय परिवर्तन किया जा सकता है | और फिर तब किसी भी प्रकार के सामाजिक भय से, धर्म के भय से, लोक मर्यादा के भय से, जाति के भय से, मान प्रतिष्ठा के भय से, अथवा अन्य किसी भी प्रकार के मानसिक विकार से व्यक्ति को, समाज को मुक्ति प्राप्त हो सकती है और अनेक प्रकार के अपराधों को होने से रोका जा सकता है | इस प्रकार की अध्यात्मपरक मन:चिकित्सा का मार्ग कठिन अवश्य है, लंबा भी है, किन्तु इसके परिणाम भी उतने ही दूरगामी हैं |