क्या अजीब सी चीज़ है ये ज़िन्दगी |
कभी कशमकश सी / नहीं है जिसका समाधान कहीं भी
कितने ज्ञान ी ध्यानी हार गए खोज खोज कर
पर नहीं पा सके एक निश्चित उत्तर |
कभी आधे देखे स्वप्न सी
ज़रा सी आहट से ही टूट कर बिखर जाता है जो पल भर में ही |
कभी भूल भुलैया सी / नहीं मिलती राह कभी भी जहाँ
चलते चलते खो जाने का भय / साथ और लक्ष्य छूट जाने का भय
नहीं मिलता जहाँ पथदर्शक भी कोई |
कभी सागर की लहरों सी चंचल / मचलती हुई सी
छोड़ दो उन लहरों के सहारे खुद को
तो डूबते उतराते / शायद कभी लग सको पार
अन्यथा, मारोगे हाथ पाँव / तो डूब जाने का भय |
कभी किनारे से भी ऊपर जाकर हिलोरें मारती लहरों सी
तो कभी शान्तभाव से तपस्या में लीन ठहरी हुई लहरों सी |
कभी सागर की गहराई सी गहरी / नहीं पा सकते जिसकी थाह
छिपाए हुए अपने भीतर / भावनाओं और सम्वेदनाओं के
अनगिनती जलचर / सीप और घोघे |
कभी समुद्र सी विशाल / नहीं पता जिसके ओर छोर का भी
और अपनी इसी असीमता के कारण
बन जाती है न जाने कितनी घटनाओं दुर्घटनाओं की साक्षी भी |
जिसके तट हर पल उतरते हैं अनेकों यात्री
क्योंकि यही तो है अन्तिम विश्रामस्थली भी |
कभी आकाश की भाँति शून्य भी
तो कभी रत्नगर्भा वसुन्धरा सी / लपेटे हुए स्वयं को
उत्साहों और उल्लासों के हरितवर्णी परिधानों में |
कभी पर्वत श्रृंखलाओं सी अन्त हीन और रहस्यमयी
एक चोटी पर पहुँचते ही / अचानक सामने खड़ी मिले कोई दूसरी चोटी
एक ऊँचाई पर पहुँचते ही मुँह चिढ़ाए / सामने से उभरती दूसरी ऊँचाई
कितना ही ऊपर / और ऊपर / उठते चले जाओ
पर नहीं मिलता मंज़िल का कोई सीधा मार्ग |
कितना ही पुकारो किसी अपने को
गूँज कर रह जाती है अपनी ही आवाज़ पर्वतों के गुफाओं में |
कभी टेढ़े मेढ़े रास्तों सी टेढ़ी मेढ़ी / नागिन सी बलखाती / लहराती |
कभी यौवन की मदिरा के नशे में धुत किसी नर्तकी सी
अपनी ही धुन में मतवाली बनी जो / दिखाती रहती है अनगिनती हाव भाव और मुद्राएँ
ठोकरें खाकर भी / विश्वास और आशा से भरी जो
बस ढूँढती रहती है संसार रूपी इस महान क्रीड़ास्थली में
अपने उस एक मात्र प्रियतम को
जो स्वयं को कहता है जरा / काल / मृत्युंजय
जिसकी गोदी में सर रख / पा सकेगी विश्राम / कुछ पलों के लिए ही सही |
जिसकी बाहों के सम्बल से / पा सकेगी स्थिरता / कुछ पलों के लिए ही सही |
क्योंकि कुछ पल की विश्रान्ति के बाद / पाकर नवजीवन / एक नवीन रूप में
फिर उठ चलना है / आगे / और आगे / टेढ़े मेढ़े मार्गों की भाँति
कभी फिर से बन जाना है सागर सी गहरी / तो कभी लहरों सी चंचल
कभी फिर से बन जाना है आकाश सी शून्य / तो कभी धरा सी धैर्यशाली
कभी फिर से बन जाना है पर्वतश्रृंखलाओं सी / अन्तहीन
तो कभी फिर से बन जाना है उसी कशमकश सी / नहीं है जिसका समाधान
या फिर उसी भूल भुलैया सी / नहीं मिलती राह कभी भी जहाँ
क्योंकि अनन्त की इस यात्रा में / थक कर बैठने का प्रश्न कहाँ
बस चलते चले जाना है / बिना रुके / निरन्तर…
ऐसी ही अनोखी है ये ज़िन्दगी…
क्या अजीब सी चीज़ है ये ज़िन्दगी…