जिससे यह तन मन रंग जाए ऐसा कोई रंग भरो तो |
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
यह दीवार घृणा की ऊँची आसमान तक खड़ी हुई है
भू पर ही जन जन में भू नभ जैसी दूरी पड़ी हुई है |
आँगन समतल करो, ढहाने का इसके कुछ ढंग करो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
दुर्भावों का हिरणाकश्यप घेर रहा है सबके मन को
विषम होलिका लिपट रही है इस पावन प्रहलाद के तन को
सच पर आँच नहीं आएगी, जला असत्य अपंग करो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
मुख गुलाल से लाल हुआ है, किन्तु न मन अनुराग रंगा है
रंग से केवल तन भीगा है, मन तो बिल्कुल ही सूखा है |
दुगुना होगा असर, नियम संयम की सच्ची गंध भरो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
एक दूसरे पर आरोपों की कीचड़ क्यों ये उछल रही है
पिचकारी से रंग के बदले नफ़रत क्यों ये निकल रही है |
ये बेशर्म ठिठोली छोड़ो, मधर हास्य के व्यंग्य भरो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
खींचे कोई घूँघट का पट, हाथ पकड़ कर नीचे कर दो
मत रोको गोरी के मग को, उसे नेह आदर से भर दो |
राधा स्वयं चली आएगी, सरस श्याम का रंग भरो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
भीतर से यदि नहीं रंगा तो मिट्टी है मिट्टी का चोला
दुनिया का यह वैभव क्या है, हिम से ढका आग का गोला |
वहम और सन्देह तजो सब, मन में नई उमंग भरो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||