स्मृतियों के झरोखे से… २६ फरवरी २०१४ को ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी एक रचना…
मैं नहीं कोई प्रस्तर प्रतिमा, देवी सम जो पूजी जाऊँ |
मैं जीव शक्ति से पूर्ण सदा एक औरत ही रहना चाहूँ ||
है नहीं कामना स्वर्गलोक की, भू पर ही है घर मेरा |
मुझको न बनाओ परलौकिक, है इसी लोक आँगन मेरा ||
हों पैर धरा पर टिके हुए तो गिरने का ना भय रहता |
और ऊँचा उठने को अपनी ही जड़ का एक सम्बल मिलता ||
मुझमें हैं अनगिन रंग भरे, हूँ राग रंग का संगम मैं |
हैं मिले मुझे वरदान प्रकृति के सारे, जिनसे गर्वित मैं ||
बलखाती नदिया के जैसी मुझमें चंचलता भरी हुई |
पर सागर सी गहराई भी मेरी रग रग में छिपी हुई ||
आँधी सा मेरा वेग, मगर मन में एक नीरवता भी है |
है अंगों में आलस्य भले, पर मुझमें चेतनता भी है ||
है बिजली की दाहकता भी, मलयानिल की शीतलता भी |
हो मन्द समीर बहे जैसे ऐसी बहती जाती मैं भी ||
मस्ती का मधुघट मुझमें है, हूँ नित उछाह से भरी हुई |
मैं मुक्त गगन में पंछी के सम नित ऊँची उड़ना चाहूँ ||
मैं नहीं कोई प्रस्तर प्रतिमा, देवी सम जो पूजी जाऊँ |
मैं जीव शक्ति से पूर्ण सदा एक औरत ही रहना चाहूँ ||