कल वेलेंटाईन डे है, उत्साह है समस्त युवा वर्ग में… अभी एक फरवरी को पर्व था वसन्त पंचमी का – जिसे भारतीय वेलेंटाईन डे भी कहा जाता है… जिस दिन ज्ञान विज्ञान की दात्री माँ वाणी की पूजा अर्चना करने के साथ ही सब प्रेम के रंग में रंग जाते हैं, और केवल मानवमात्र ही नहीं, सारी प्रकृति ही वासन्ती प्रेम के रंग में डूबी होती है… और संयोग ये कि वसन्त पंचमी तो आती ही वसन्त ऋतु के स्वागत के लिए है, ऐसा लगता है मानों वेलेंटाईन डे भी वसन्त के स्वागत के लिए इन्हीं दिनों मनाया जाता है | बहुत सारे लोग इस वेलेंटाईन डे के पक्ष में रहते हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो इसका विरोध करते हैं |
पर विरोध किसलिए ? क्या केवल इसलिए कि इस पर “विदेशी” की छाप लगी है ? यदि ऐसा है तब तो हमें विदेशों में जाकर न तो पढ़ाई करनी चाहिए और न ही नौकरी व्यवसाय आदि करना चाहिए और न ही अपनी मातृभाषा बोलने में शर्म का अनुभव करना चाहिए | लेकिन हम यही सब तो करते आ रहे हैं – अगर कोई व्यक्ति मात्र हिन्दी में बात करता है और अंग्रेज़ी में उसका हाथ तंग होता है तो वह उपहास का पात्र बना दिया जाता है, उसे अच्छी नौकरी नहीं मिलती, अच्छी लड़की या लड़के से उसका विवाह होने में समस्याएँ उत्पन्न होती हैं | तो मित्रों, जब अंग्रेज़ी का इतना बोलबाला है हम “भारतीयों” के जीवन में कि उसके बिना हम अनपढ़ गँवार माने जाएँ तो भला वेलेंटाईन डे से इतना परहेज़ क्यों ?
एक और बात पर “डिस्कशन” चल रहे हैं – और वो ये कि “यदि ये प्रेम का पर्व है तो एक ही दिन वेलेंटाईन डे क्यों ? हर रोज़ क्यों नहीं ?” तो क्या हम हर दिन वसन्त एक पर्व के रूप में मनाते हैं ? क्या हर दिन होली के रंगों में नहाया जा सकता है ? क्या हर रात दिवाली के दीप जलाए जा सकते हैं ? एक ही दिन क्यों ये पर्व मनाए जाते हैं – रोज़ रोज़ क्यों नहीं ? तो मित्रों, पर्व तो एक ही दिन मनाया जाता है – तभी उसमें इतना अधिक उत्साह और जीवन भरा होता है | हर रोज़ यदि होली, दिवाली, वसन्त, राखी, ईद या कोई भी पर्व मनाया जाने लगा तो वह पर्व अपना उत्साह खो देगा और महज़ एक औपचारिकता मात्र बनकर रह जाएगा |
सभी पर्वों के मूल में भाव प्रेम का ही होता है, मस्ती और उत्साह का ही होता है | यदि उस एक दिन पारस्परिक दुराग्रहों, ईर्ष्या-द्वेष-घृणा आदि को तज कर साथ मिलकर पूर्ण उत्साह के साथ प्रेम के मार्ग पर चलने का आरम्भ किया जा सकता है तो क्यों न किया जाए ? और एक बार जब आरम्भ हो जाता है तो देर में सही, मंज़िल पर तो पहुँच ही जाते हैं | क्योंकि प्रेम केवल प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के मध्य ही नहीं होता – जीवमात्र के प्रति प्रेम का भाव ही वास्तविक प्रेम है | सभी पर्वों की मूलभूत भावना है परस्पर प्रेम और सद्भाव रखते हुए सकारात्मक सोच में वृद्धि करते हुए आत्मोत्थान की ओर अग्रसर होना | हाँ, हर पल यदि परस्पर प्रेम और सद्भाव का भाव विद्यमान रहा तो हर पल पर्व जैसा होगा और तब पर्व का कुछ अलग ही उत्साह बनेगा |
बहरहाल, और किसी भी चर्चा में न पड़ते हुए केवल कुछ पंक्तियाँ…
प्रेम नहीं है ढाई अक्षर का मात्र एक शब्द
जो उच्चरित होते ही हो जाता है व्यर्थ
खो देता है अपना अर्थ / अपना अस्तित्व / अपना सार
न ही है कोरा भाव / जो उत्पन्न होते ही बन जाए अभाव
न ही समय है उसका आधार / न ही है कोई घटना उसका कारण
ना ही है इसका कोई रूप / न ही है इसकी कोई परिभाषा
ना ही है यह कोई दिखावा / ना ही छल / ना ही भ्रम
उपजता है यह हमारे ही अन्तरतम से
जो है अछूता किसी भी स्पर्श से / जो है अदृश्य किसी भी दृष्टि से
जो है परे देश-काल-युग-कल्प की भी समस्त सीमाओं से
है मात्र एक अनुभूति / होती है आन्दोलित जो गहराइयों में मन की
है ऐसा एक भराव / जो भर देता है समस्त शून्यता को सम्बन्धों की
नहीं करना होता प्रयास इसे पाने का तनिक भी
दस्तक देता है द्वार पर अनायास ही / बिना किसी पूर्वानुमान के
बस हटाना होगा आवरण भ्रम का / द्विविधा का
पाना होगा नियन्त्रण समस्त विचारों पर / हो जाने को विचारशून्य
करना होगा शान्त समस्त तर्कों को / हो जाने को तर्कशून्य
लाँघनी होंगी समस्त सीमाएँ ज्ञान की / बन जाने को एक भोला बालक
तभी समझ आएगा प्रेम का अनुशासन / भावना कर्तव्य की
तभी अनुभव होगा प्रेम का आन्दोलन / एक लक्ष्य
है कठिन जिस तक पहुँचना भी / है कठिन जिसे पूर्ण करना भी
क्योंकि मार्ग है कठिन / घुमावदार / ऊँचा नीचा और पथरीला
किन्तु पा ली सफलता इस आन्दोलन में / प्राप्त कर लिया इस लक्ष्य को
तो होगा उत्थान मानव मात्र का / जीव मात्र का / समस्त जगती का
क्योंकि है सत्य / कि जब नहीं था अस्तित्व किसी जीव का भी
था तब भी अस्तित्व प्रेम का
तभी तो सृष्टि चक्र का प्रथम बीज / गिरा होगा इस पृथिवी पर
क्योंकि है सत्य / कि नहीं रहेगा अस्तित्व किसी जीव का भी
रहेगा तब भी अस्तित्व प्रेम का
तभी तो रच सकेगा रचेता एक नवीन रचना / एक नवीन चक्र सृष्टि का
और इसीलिए कर्तव्य बोध प्रेम का / आन्दोलन प्रेम का
बन जाता है शाश्वत… अजर… अमर…
और तब नहीं रहता प्रेम ढाई अक्षर का मात्र एक शब्द / जो हो सकता है व्यर्थ
और ना ही रहने पाता है मात्र कोरा भाव / जो बन सकता है कभी भी अभाव…