प्रिय मित्रों, ६ सितम्बर से दिगम्बर जैन मतावलम्बियों के साम्वत्सरिक पर्व अर्थात पर्यूषण पर्व का आरम्भ हो चुका है जो दस दिनों तक चलेगा | इससे पूर्व २९ अगस्त से ५ सितम्बर तक आठ दिनों तक श्वेताम्बर मतावलम्बियों का पर्यूषण चल रहा था | मैं स्वयं पिछले दिनों कुछ पारिवारिक मंगल कार्यों में व्यस्त रही इस कारण पर्व के आरम्भ से ही अपने ब्लॉग पर नहीं आ सकी | आज समय मिला तो सर्वप्रथम तो सभी को इस पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ | पहले भी इस पर्व के सन्दर्भ में लिखती रही हूँ इसलिए नया तो कुछ हो नहीं सकता | फिर भी लिखने का मोह संवरण नहीं कर पा रही |
जैन पर्वों ने सदा ही मुझे आकर्षित किया है | कारण सम्भवतः यह रहा कि मेरे पूज्य पिता स्वर्गीय श्री यमुना प्रसाद कात्यायन को नजीबाबाद तथा आस पास के शहरों में जैन पर्वों के अवसर पर प्रवचन के लिये आमन्त्रित किया जाता था | और पिताजी की लाडली होने के कारण यह तो सम्भव ही नहीं था कि पिताजी मुझे साथ लिये बिना मन्दिर चले जाएँ | और इस तरह जैन पर्वों को समझने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा | सम्भवतः इसी प्रभाव के कारण मैंने अपनी शोध का विषय भी जैन दर्शन से ही सम्बन्धित चुना | इसीलिये आज जब ज्ञात हुआ कि पर्यूषण पर्व आरम्भ हो चुका है तो इस विषय पर कुछ लिखने का मोह नहीं निवारण कर सकी और आज जैसे ही समय मिला लिखने बैठ गई | यद्यपि इतने विषद विषय पर कुछ भी लिख पाना मुझ जैसी सामान्य बुद्धि अध्येता के लिये छोटा मुँह बड़ी बात जैसा ही होगा | इसलिये इस लेख में कुछ भी यदि तर्क-विरुद्ध लगे तो विद्वद्जनों से क्षमा चाहूँगी | वैसे भी “क्षमावाणी” पर्व के इस शुभावसर पर क्षमायाचना तो आवश्यक भी है |
बचपन से ही देखती आ रही हूँ कि हर वर्ष दस दिनों तक यह पर्व चलता है और इन दस दिनों के लिये जैन मतावलम्बी यथासम्भव अपने समस्त क्रियाकलापों से मुक्त होकर केवल धर्म मार्ग का ही अनुसरण करते हैं | हमारे नगर में तो इन दस दिनों के बाद पर्व की समाप्ति के अवसर पर विशाल रथ यात्रा का आयोजन किया जाता था और स्थानीय मूर्ति देवी विद्यालय में मेला भरा करता था जिसमें अनेक प्रकार के साहित्यिक और साँस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते थे | पूरा शहर इस रथयात्रा और मेले के उल्लास में मग्न हो जाया करता था | यों पर्व के दस दिनों में हर दिन ही शाम के समय बड़े जैन मन्दिर में किसी न किसी साँस्कृतिक अथवा साहित्यिक कार्यक्रम का आयोजन होता था | शहर भर के लोग – चाहे वे किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के हों – इस अवसर पर क्षमावाणी के रंग में रंग जाया करते थे | लगता था जैसे यह पर्व केवल जैनियों का ही नहीं, वरन समस्त शहर का पर्व है |
यह तो था इस पर्व का लौकिक पक्ष जो सारे शहर को, प्रत्येक मतावलम्बी और धर्मावलम्बी को एक सूत्र में पिरोने की सामर्थ्य रखता है | किन्तु आध्यात्मिक पक्ष तो और भी गहन है | इन समस्त कार्यक्रमों का अंग बनने पर मैंने जाना कि जिस प्रकार नवरात्र पर्व संयम और आत्मशुद्धि का पर्व होता है, उसी भांति पर्यूषण पर्व भी – जिसका विशेष अंग है दशलक्षणव्रत – संयम और आत्मशुद्धि के त्यौहार हैं । नवरात्र और दश्लाक्षण पर्व दोनों में ही त्याग, तप, उपवास, परिष्कार, संकल्प, स्वाध्याय और आराधना पर बल दिया जाता है । यदि उपवास न भी हो तो भी यथासंभव तामसिक भोजन तथा कृत्यों से दूर रहने का प्रयास किया जाता है ।
सभी जानते हैं कि भारतवर्ष उत्सवों और पर्वों का देश है | संसार के अन्य देशों में अन्यत्र कहीं भी इतने अधिक धार्मिक उत्सव और पर्व नहीं मनाए जाते होंगे जितने हमारे देश में मनाए जाते हैं | भारत में इतने अधिक उत्सवों और पर्वों के मनाए जाने का कारण सम्भवतः यह प्रतीत होता है कि भारतीय अध्यात्मिक दृष्टि जीवन का अन्तिम लक्ष्य परमानन्द की प्राप्ति मानती है | आत्मा की शिवलोक प्राप्ति मानती है | भारत के अन्य दर्शनों की भाँति जैन दर्शन का भी अन्तिम लक्ष्य सत्यशोधन करके उसी परमानन्द की उपलब्धि करना है | इसे ही तत्व ज्ञान कहते हैं | तत्वज्ञान – अर्थात् सत्यशोधन के प्रयत्न में से फलित होने वाले सिद्धान्त ही धर्म कहे जाते हैं | धर्म का तात्पर्य है वैयक्तिक और सामूहिक जीवन व्यवहार | मानव की योग्यता तथा शक्ति के अनुसार ही अधिकार भेद के कारण धर्म में अन्तर ही रहेगा और इस कारण धर्माचरण में भी अन्तर रहेगा | किन्तु धर्म चाहे कोई भी हो, यदि उसमें तत्वज्ञान नहीं होगा, तत्वज्ञों के द्वारा बताए व्यवहार आदि नहीं होंगे, तो ऐसा धर्म कभी भी जड़ता से रहित नहीं हो सकता और न ही उसमें सत्य निष्ठा बन पाएगी मानव मात्र की | अतः धर्म और तत्वज्ञान दोनों की दिशा साथ ही रहती है | धर्म का बीज जिजीविषा, सुख की अभिलाषा और दुःख के प्रतिकार में ही निहित है | कोई भी छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा प्राणधारी भी अकेले अपने आप में जीना चाहे तो बिना सजातीय दल का आश्रय लिये जीवन नहीं व्यतीत कर सकता | अपने दल में रहकर ही प्राणी उसके आश्रय से सुख का अनुभव करता है | तोता मैना कौआ आदि पक्षी केवल अपनी सन्तति के ही नहीं बल्कि अपने सजातीय दल के संकट के समय भी मरणान्त प्रयत्न करते हैं | इस प्रकार पारस्परिक सहयोग से ही सामाजिक जीवन का प्रारम्भ होता है | इस जीवन को प्रगतिशील और उल्लासमय बनाए रखने के लिये तथा पारस्परिक संगठन और सहयोग को जीवित रखने के लिये ही उत्सवों और पर्वों का आयोजन किया जाता है | ये उत्सव केवल सामजिक सहयोग को ही बढ़ावा नहीं देते वरन् साथ साथ धार्मिक परम्परा को भी जीवित रखते हैं | और इस प्रकार मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक व्यवहार भी शनैः शनैः अभ्यास में आता जाता है | इस प्रकार जैन सम्प्रदाय का पर्यूषण पर्व जो कि भाद्रपद मास की शुक्ल पंचमी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को सम्पन्न होता है, एक ऐसा ही सामाजिक पर्व है जो मनुष्य को मनुष्य के साथ मनुष्य के रूप में जोड़कर उसमें सम्यक् चारित्र्य और सम्यक् दृष्टि का विकास करता है |
धर्म के दो रूप होते हैं – एक बाह्य रूप और दूसरा आभ्यन्तर | धर्म का बाह्य रूप धर्म की देह है और आभ्यन्तर रूप धर्म का प्राण है | शास्त्र धर्म की देह अर्थात् बाह्य स्वरूप का निर्माण करता है | उस शास्त्र को समझने वाला ज्ञानी पुरुष, तीर्थ प्रदेश, मन्दिर तथा व्रतोत्सव और पर्व आदि उस देह के पोषक तत्व हैं, जिनके द्वारा उसका प्रसार एवं प्रचार होता है | इसीलिये प्रत्येक सम्प्रदाय के व्रतोत्सव विधान शास्त्रानुमोदित होते हैं | देह और प्राण दोनों के ऊपर आत्मा है | प्रत्येक पन्थ की आत्मा उसी प्रकार एक ही है जैसे जीवमात्र की आत्मा एक है | सत्य, धर्म, शांति, प्रेम, नि:स्वार्थता, उदारता और विनय विवेक आदि सद्गुण धर्म की आत्मा हैं | सभी पन्थों की आत्मा ये ही सद्गुण हैं |
सत्य की प्राप्ति के लिये बेचैनी और विवेकी स्वभाव इन दो तत्वों पर आधारित जीवन व्यवहार ही पारमार्थिक धर्म है | जैन सम्प्रदाय का पर्यूषण पर्व ऐसे ही पारमार्थिक धर्म का व्यावहारिक स्वरूप है | जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर के आचार विचार का सीधा और स्पष्ट प्रतिबिम्ब मुख्यतया आचारांगसूत्र में देखने को मिलता है | उसमें जो कुछ कहा गया है उस सबमें साध्य, समता या सम पर ही पूर्णतया भार दिया गया है | सम्यग्दृष्टिमूलक और सम्यग्दृष्टिपोषक जो जो आचार विचार हैं वे सब सामयिक रूप से जैन परम्परा में पाए जाते हैं | गृहस्थ और त्यागी सभी के लिये ६ आवश्यक कर्म बताए गए हैं | जिनमें मुख्य “सामाइय” (जिस प्रकार सन्ध्या वन्दन ब्राह्मण परम्परा का आवश्यक अंग है उसी प्रकार जैन परम्परा में सामाइय हैं) हैं | त्यागी हो या गृहस्थ, वह जब भी अपने अपने अधिकार के अनुसार धार्मिक जीवन को स्वीकार करता है तभी उसे यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है “करोमि भन्ते सामाइयम् |” जिसका अर्थ है कि मैं समता अर्थात् समभाव की प्रतिज्ञा करता हूँ | मैं पाप व्यापार अथवा सावद्ययोग का यथाशक्ति त्याग करता हूँ | साम्यदृष्टि जैन परम्परा के आचार विचार दोनों ही में है | और समस्त आचार विचार का केन्द्र है अहिंसा | अहिंसा पर प्रायः सभी पन्थ बल देते हैं | किन्तु जैन परम्परा में अहिंसा तत्व पर जितना अधिक बल दिया गया है और इसे जितना व्यापक बनाया गया है उतना बल और उतनी व्यापकता अन्य परम्परा में सम्भवतः नहीं है | मनुष्य, पशु पक्षी, कीट पतंग आदि जीवित प्राणी ही नहीं, वनस्पति, पार्थिव-जलीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओं तक की हिंसा से आत्मौपम्य की भावना द्वारा निवृत्त होने को कहा गया है | आत्मौपम्य की भावना अर्थात् समस्त प्राणियों की आत्मा को अपनी ही आत्मा मानना | इस प्रकार विचार में जिस साम्य दृष्टि पर बल दिया गया है वही इस पर्यूषण पर्व का आधार है | और इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के पालन द्वारा आत्मा को मिथ्यात्व, विषय व कषाय से मुक्त करने का प्रयास किया जाता है |
कोई भी छोटा या बड़ा जैन पर्व ऐसा नहीं है जो अर्थ या काम की भावना से उत्पन्न हुआ हो | अथवा जिसमें पीछे से प्रविष्ट किसी अर्थ या काम की भावना का शास्त्र से समर्थन किया जाता हो | चाहे जैन पर्वों का निमित्त तीर्थंकरों के किसी कल्याणक का हो अथवा कोई अन्य हो, उनका उद्देश्य केवल चरित्र की शुद्धि एवं पुष्टि करना ही रखा गया है | जैन पर्व कुछ एक दिवसीय होते हैं और कुछ बहुदिवसीय | लम्बे त्यौहारों में विशेष जैन पर्वों की ६ अट्ठाइयाँ हैं | उनमें पर्यूषण पर्व की अट्ठाई सर्वश्रेष्ठ समझी जाती है | इनके अतिरिक्त तीन अट्ठाइयाँ चातुर्मास की तथा दो औली की होती हैं | पर्यूषण की अट्ठाई के सर्वप्रिय होने का मुख्य कारण तो उसमें आने वाला साम्वत्सरिक पर्व है | यह साम्वत्सरिक पर्व पर्यूषण का ही नही वरन् जैन धर्म का प्राण है । इस दिन साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाता है जिसके द्वारा वर्ष भर में किए गए पापों का प्रायश्चित्त करते हैं । साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण के बीच में ही सभी ८४ लाख जीव योनी से क्षमा याचना की जाती है । यह क्षमा याचना सभी जीवों से वैर भाव मिटा कर मैत्री करने के लिए होती है। इस पर्व में यत्र तत्र जैन समाज में धार्मिक वातावरण दिखाई देता है | सभी निवृत्ति और अवकाशप्राप्ति का प्रयत्न करते हैं | खान पान एवम् अन्य भोगों पर अँकुश रखते हैं | शास्त्र श्रवण और आत्म चिन्तन करते हैं | तपस्वियों, त्यागियों और धार्मिक बन्धुओं की भक्ति करते हैं | जीवों को अभयदान देने का प्रयत्न करते हैं | और सबके साथ सच्ची मैत्री साधने की भावना रखते हैं | श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इसे पजूसन पर्व भी कहा जाता है | इसे दशलाक्षणी और क्षमावाणी पर्व भी कहा जाता है | क्योंकि इस पर्व में दश लक्षणों का पालन किया जाता है | जो हैं – क्षमा, विनम्रता, माया का विनाश, निर्मलता, सत्य अर्थात आत्मसत्य का ज्ञान – और यह तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति मितभाषी हो तथा स्थिर मन वाला हो, संयम – इच्छाओं और भावनाओं पर नियन्त्रण, तप – मन में सभी प्रकार की इच्छाओं का अभाव हो जाने पर ध्यान की स्थिति को प्राप्त करना, त्याग – किसी पर भी अधिकार की भावना का त्याग, परिग्रह का निवारण और ब्रह्मचर्य – आत्मस्थ होना – केवल अपने भीतर स्थित होकर ही स्वयं को नियन्त्रित किया जा सकता है अन्यथा तो आत्मा इच्छाओं के अधीन रहती है – का पालन किया जाता है तथा क्षमायाचना और क्षमादान दिया जाता है | श्वेताम्बर परम्परा में यह पर्व आठ दिन का होता है और दिगम्बर परम्परा में दस दिन का | श्वेताम्बरों का पजूसन पर्व समाप्त होते ही दूसरे दिन से भाद्रपद शुक्ल पंचमी से दिगम्बरों का पर्यूषण पर्व आरम्भ हो जाता है और यह पर्व दस दिनों तक चलता है तथा भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा (अनन्त चतुर्दशी) को सम्पन्न होता है | इन दिनों में भगवान महावीर की पुण्य कथा का श्रवण किया जाता है | भगवान ने अपनी कठोर साधना के द्वारा जिन सत्यों का अनुभव किया था वे संक्षेप में ३ हैं – दूसरे के दुःख को अपना दुःख समझकर जीवन व्यवहार चलाना, जिससे जीवन में सुखशीलता और विषमता के हिंसक तत्वों का समावेश न हो | अपनी सुख सुविधा का समाज के हित के लिये पूर्ण बलिदान देना, जिससे परिग्रह लोकोपकार में परिणत हो | सतत् जागृति और जीवन का अन्तर्निरीक्षण करना, जिससे आत्मपुरुषार्थ में कमी न आने पाए |
सच्चा सुख और सच्ची शान्ति प्राप्त करने के लिये एकमात्र उपाय यही है कि व्यक्ति अपनी जीवन प्रवृत्ति का सूक्ष्मता से अवलोकन करे | और जहाँ कहीं, किसी के साथ, किसी प्रकार भी की हुई भूल के लिये – चाहे वह छोटी से छोटी ही क्यों न हो – नम्रतापूर्वक क्षमायाचना करे और दूसरे को उसकी पहाड़ सी भूल के लिये भी क्षमादान दे | सामाजिक स्वास्थ्य के लिये तथा स्वयम् को जागृत और विवेकी बनाने के लिये यह व्यवहार नितान्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है | इस पर्व पर इसीलिये क्षमायाचना और क्षमादान का क्रम चलता है | जिसके लिये सभी जैन मतावलम्बी संकल्प लेते हैं “खम्मामि सव्व जीवेषु सव्वे जीवा खमन्तु में, मित्ति में सव्व भू ए सू वैरम् मज्झणम् केण वि |” अर्थात् सब जीवों को मै क्षमा करता हूं और सब जीव मुझे क्षमा करे | सब जीवों के साथ मेरा मैत्री भाव रहे, किसी के साथ भी वैर-भाव नही रहे | और इस प्रकार क्षमादान देकर तथा क्षमा माँग कर व्यक्ति संयम और विवेक का अनुसरण करता है, आत्मिक शान्ति का अनुभव करता है | किसी प्रकार के भी क्रोध के लिये तब स्थान नहीं रहता और इस प्रकार समस्त जीवों के प्रति प्रेम की भावना तथा मैत्री का भाव विकसित होता है | आत्मा तभी शुद्ध रह सकती है जब वह अपने से बाहर हस्तक्षेप न करे और न ही किसी बाहरी तत्व से विचलित हो। क्षमा-भाव इसका मूलमन्त्र है । यह केवल जैन परम्परा तक ही नहीं वरन् समाजव्यापी क्षमापना में सन्निहित है | मन को स्वच्छ उदार एवं विवेकी बनाकर समाज के संगठन की दिशा में इससे बड़ा और क्या प्रयत्न हो सकता है |
और इस सबके साथ ही क्षमायाचना के साथ साथ आप सभी को पर्यूषण पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ…….
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प्रिय मित्रों, ६ सितम्बर से दिगम्बर जैन मतावलम्बियों के साम्वत्सरिक पर्व अर्थात पर्यूषण पर्व का आरम्भ हो चुका है जो दस दिनों तक चलेगा | इससे पूर्व २९ अगस्त से ५ सितम्बर तक आठ दिनों तक श्वेताम्बर मतावलम्बियों का पर्यूषण चल रहा था | मैं स्वयं पिछले दिनों कुछ पारिवारिक मंगल कार्यों में व्यस्त रही इस कारण पर्व के आरम्भ से ही अपने ब्लॉग पर नहीं आ सकी | आज समय मिला तो सर्वप्रथम तो सभी को इस पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ | पहले भी इस पर्व के सन्दर्भ में लिखती रही हूँ इसलिए नया तो कुछ हो नहीं सकता | फिर भी लिखने का मोह संवरण नहीं कर पा रही |
जैन पर्वों ने सदा ही मुझे आकर्षित किया है | कारण सम्भवतः यह रहा कि मेरे पूज्य पिता स्वर्गीय श्री यमुना प्रसाद कात्यायन को नजीबाबाद तथा आस पास के शहरों में जैन पर्वों के अवसर पर प्रवचन के लिये आमन्त्रित किया जाता था | और पिताजी की लाडली होने के कारण यह तो सम्भव ही नहीं था कि पिताजी मुझे साथ लिये बिना मन्दिर चले जाएँ | और इस तरह जैन पर्वों को समझने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा | सम्भवतः इसी प्रभाव के कारण मैंने अपनी शोध का विषय भी जैन दर्शन से ही सम्बन्धित चुना | इसीलिये आज जब ज्ञात हुआ कि पर्यूषण पर्व आरम्भ हो चुका है तो इस विषय पर कुछ लिखने का मोह नहीं निवारण कर सकी और आज जैसे ही समय मिला लिखने बैठ गई | यद्यपि इतने विषद विषय पर कुछ भी लिख पाना मुझ जैसी सामान्य बुद्धि अध्येता के लिये छोटा मुँह बड़ी बात जैसा ही होगा | इसलिये इस लेख में कुछ भी यदि तर्क-विरुद्ध लगे तो विद्वद्जनों से क्षमा चाहूँगी | वैसे भी “क्षमावाणी” पर्व के इस शुभावसर पर क्षमायाचना तो आवश्यक भी है |
बचपन से ही देखती आ रही हूँ कि हर वर्ष दस दिनों तक यह पर्व चलता है और इन दस दिनों के लिये जैन मतावलम्बी यथासम्भव अपने समस्त क्रियाकलापों से मुक्त होकर केवल धर्म मार्ग का ही अनुसरण करते हैं | हमारे नगर में तो इन दस दिनों के बाद पर्व की समाप्ति के अवसर पर विशाल रथयात्रा का आयोजन किया जाता था और स्थानीय मूर्ति देवी विद्यालय में मेला भरा करता था जिसमें अनेक प्रकार के साहित्यिक और साँस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते थे | पूरा शहर इस रथयात्रा और मेले के उल्लास में मग्न हो जाया करता था | यों पर्व के दस दिनों में हर दिन ही शाम के समय बड़े जैन मन्दिर में किसी न किसी साँस्कृतिक अथवा साहित्यिक कार्यक्रम का आयोजन होता था | शहर भर के लोग – चाहे वे किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के हों – इस अवसर पर क्षमावाणी के रंग में रंग जाया करते थे | लगता था जैसे यह पर्व केवल जैनियों का ही नहीं, वरन समस्त शहर का पर्व है |
यह तो था इस पर्व का लौकिक पक्ष जो सारे शहर को, प्रत्येक मतावलम्बी और धर्मावलम्बी को एक सूत्र में पिरोने की सामर्थ्य रखता है | किन्तु आध्यात्मिक पक्ष तो और भी गहन है | इन समस्त कार्यक्रमों का अंग बनने पर मैंने जाना कि जिस प्रकार नवरात्र पर्व संयम और आत्मशुद्धि का पर्व होता है, उसी भांति पर्यूषण पर्व भी – जिसका विशेष अंग है दशलक्षणव्रत – संयम और आत्मशुद्धि के त्यौहार हैं । नवरात्र और दश्लाक्षण पर्व दोनों में ही त्याग, तप, उपवास, परिष्कार, संकल्प, स्वाध्याय और आराधना पर बल दिया जाता है । यदि उपवास न भी हो तो भी यथासंभव तामसिक भोजन तथा कृत्यों से दूर रहने का प्रयास किया जाता है ।
सभी जानते हैं कि भारतवर्ष उत्सवों और पर्वों का देश है | संसार के अन्य देशों में अन्यत्र कहीं भी इतने अधिक धार्मिक उत्सव और पर्व नहीं मनाए जाते होंगे जितने हमारे देश में मनाए जाते हैं | भारत में इतने अधिक उत्सवों और पर्वों के मनाए जाने का कारण सम्भवतः यह प्रतीत होता है कि भारतीय अध्यात्मिक दृष्टि जीवन का अन्तिम लक्ष्य परमानन्द की प्राप्ति मानती है | आत्मा की शिवलोक प्राप्ति मानती है | भारत के अन्य दर्शनों की भाँति जैन दर्शन का भी अन्तिम लक्ष्य सत्यशोधन करके उसी परमानन्द की उपलब्धि करना है | इसे ही तत्वज्ञान कहते हैं | तत्वज्ञान – अर्थात् सत्यशोधन के प्रयत्न में से फलित होने वाले सिद्धान्त ही धर्म कहे जाते हैं | धर्म का तात्पर्य है वैयक्तिक और सामूहिक जीवन व्यवहार | मानव की योग्यता तथा शक्ति के अनुसार ही अधिकार भेद के कारण धर्म में अन्तर ही रहेगा और इस कारण धर्माचरण में भी अन्तर रहेगा | किन्तु धर्म चाहे कोई भी हो, यदि उसमें तत्वज्ञान नहीं होगा, तत्वज्ञों के द्वारा बताए व्यवहार आदि नहीं होंगे, तो ऐसा धर्म कभी भी जड़ता से रहित नहीं हो सकता और न ही उसमें सत्य निष्ठा बन पाएगी मानव मात्र की | अतः धर्म और तत्वज्ञान दोनों की दिशा साथ ही रहती है | धर्म का बीज जिजीविषा, सुख की अभिलाषा और दुःख के प्रतिकार में ही निहित है | कोई भी छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा प्राणधारी भी अकेले अपने आप में जीना चाहे तो बिना सजातीय दल का आश्रय लिये जीवन नहीं व्यतीत कर सकता | अपने दल में रहकर ही प्राणी उसके आश्रय से सुख का अनुभव करता है | तोता मैना कौआ आदि पक्षी केवल अपनी सन्तति के ही नहीं बल्कि अपने सजातीय दल के संकट के समय भी मरणान्त प्रयत्न करते हैं | इस प्रकार पारस्परिक सहयोग से ही सामाजिक जीवन का प्रारम्भ होता है | इस जीवन को प्रगतिशील और उल्लासमय बनाए रखने के लिये तथा पारस्परिक संगठन और सहयोग को जीवित रखने के लिये ही उत्सवों और पर्वों का आयोजन किया जाता है | ये उत्सव केवल सामजिक सहयोग को ही बढ़ावा नहीं देते वरन् साथ साथ धार्मिक परम्परा को भी जीवित रखते हैं | और इस प्रकार मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक व्यवहार भी शनैः शनैः अभ्यास में आता जाता है | इस प्रकार जैन सम्प्रदाय का पर्यूषण पर्व जो कि भाद्रपद मास की शुक्ल पंचमी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को सम्पन्न होता है, एक ऐसा ही सामाजिक पर्व है जो मनुष्य को मनुष्य के साथ मनुष्य के रूप में जोड़कर उसमें सम्यक् चारित्र्य और सम्यक् दृष्टि का विकास करता है |
धर्म के दो रूप होते हैं – एक बाह्य रूप और दूसरा आभ्यन्तर | धर्म का बाह्य रूप धर्म की देह है और आभ्यन्तर रूप धर्म का प्राण है | शास्त्र धर्म की देह अर्थात् बाह्य स्वरूप का निर्माण करता है | उस शास्त्र को समझने वाला ज्ञानी पुरुष, तीर्थ प्रदेश, मन्दिर तथा व्रतोत्सव और पर्व आदि उस देह के पोषक तत्व हैं, जिनके द्वारा उसका प्रसार एवं प्रचार होता है | इसीलिये प्रत्येक सम्प्रदाय के व्रतोत्सव विधान शास्त्रानुमोदित होते हैं | देह और प्राण दोनों के ऊपर आत्मा है | प्रत्येक पन्थ की आत्मा उसी प्रकार एक ही है जैसे जीवमात्र की आत्मा एक है | सत्य, धर्म, शांति, प्रेम, नि:स्वार्थता, उदारता और विनय विवेक आदि सद्गुण धर्म की आत्मा हैं | सभी पन्थों की आत्मा ये ही सद्गुण हैं |
सत्य की प्राप्ति के लिये बेचैनी और विवेकी स्वभाव इन दो तत्वों पर आधारित जीवन व्यवहार ही पारमार्थिक धर्म है | जैन सम्प्रदाय का पर्यूषण पर्व ऐसे ही पारमार्थिक धर्म का व्यावहारिक स्वरूप है | जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर के आचार विचार का सीधा और स्पष्ट प्रतिबिम्ब मुख्यतया आचारांगसूत्र में देखने को मिलता है | उसमें जो कुछ कहा गया है उस सबमें साध्य, समता या सम पर ही पूर्णतया भार दिया गया है | सम्यग्दृष्टिमूलक और सम्यग्दृष्टिपोषक जो जो आचार विचार हैं वे सब सामयिक रूप से जैन परम्परा में पाए जाते हैं | गृहस्थ और त्यागी सभी के लिये ६ आवश्यक कर्म बताए गए हैं | जिनमें मुख्य “सामाइय” (जिस प्रकार सन्ध्या वन्दन ब्राह्मण परम्परा का आवश्यक अंग है उसी प्रकार जैन परम्परा में सामाइय हैं) हैं | त्यागी हो या गृहस्थ, वह जब भी अपने अपने अधिकार के अनुसार धार्मिक जीवन को स्वीकार करता है तभी उसे यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है “करोमि भन्ते सामाइयम् |” जिसका अर्थ है कि मैं समता अर्थात् समभाव की प्रतिज्ञा करता हूँ | मैं पापव्यापार अथवा सावद्ययोग का यथाशक्ति त्याग करता हूँ | साम्यदृष्टि जैन परम्परा के आचार विचार दोनों ही में है | और समस्त आचार विचार का केन्द्र है अहिंसा | अहिंसा पर प्रायः सभी पन्थ बल देते हैं | किन्तु जैन परम्परा में अहिंसा तत्व पर जितना अधिक बल दिया गया है और इसे जितना व्यापक बनाया गया है उतना बल और उतनी व्यापकता अन्य परम्परा में सम्भवतः नहीं है | मनुष्य, पशु पक्षी, कीट पतंग आदि जीवित प्राणी ही नहीं, वनस्पति, पार्थिव-जलीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओं तक की हिंसा से आत्मौपम्य की भावना द्वारा निवृत्त होने को कहा गया है | आत्मौपम्य की भावना अर्थात् समस्त प्राणियों की आत्मा को अपनी ही आत्मा मानना | इस प्रकार विचार में जिस साम्य दृष्टि पर बल दिया गया है वही इस पर्यूषण पर्व का आधार है | और इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के पालन द्वारा आत्मा को मिथ्यात्व, विषय व कषाय से मुक्त करने का प्रयास किया जाता है |
कोई भी छोटा या बड़ा जैन पर्व ऐसा नहीं है जो अर्थ या काम की भावना से उत्पन्न हुआ हो | अथवा जिसमें पीछे से प्रविष्ट किसी अर्थ या काम की भावना का शास्त्र से समर्थन किया जाता हो | चाहे जैन पर्वों का निमित्त तीर्थंकरों के किसी कल्याणक का हो अथवा कोई अन्य हो, उनका उद्देश्य केवल चरित्र की शुद्धि एवं पुष्टि करना ही रखा गया है | जैन पर्व कुछ एक दिवसीय होते हैं और कुछ बहुदिवसीय | लम्बे त्यौहारों में विशेष जैन पर्वों की ६ अट्ठाइयाँ हैं | उनमें पर्यूषण पर्व की अट्ठाई सर्वश्रेष्ठ समझी जाती है | इनके अतिरिक्त तीन अट्ठाइयाँ चातुर्मास की तथा दो औली की होती हैं | पर्यूषण की अट्ठाई के सर्वप्रिय होने का मुख्य कारण तो उसमें आने वाला साम्वत्सरिक पर्व है | यह साम्वत्सरिक पर्व पर्यूषण का ही नही वरन् जैन धर्म का प्राण है । इस दिन साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाता है जिसके द्वारा वर्ष भर में किए गए पापों का प्रायश्चित्त करते हैं । साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण के बीच में ही सभी ८४ लाख जीव योनी से क्षमा याचना की जाती है । यह क्षमा याचना सभी जीवों से वैर भाव मिटा कर मैत्री करने के लिए होती है। इस पर्व में यत्र तत्र जैन समाज में धार्मिक वातावरण दिखाई देता है | सभी निवृत्ति और अवकाशप्राप्ति का प्रयत्न करते हैं | खान पान एवम् अन्य भोगों पर अँकुश रखते हैं | शास्त्र श्रवण और आत्म चिन्तन करते हैं | तपस्वियों, त्यागियों और धार्मिक बन्धुओं की भक्ति करते हैं | जीवों को अभयदान देने का प्रयत्न करते हैं | और सबके साथ सच्ची मैत्री साधने की भावना रखते हैं | श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इसे पजूसन पर्व भी कहा जाता है | इसे दशलाक्षणी और क्षमावाणी पर्व भी कहा जाता है | क्योंकि इस पर्व में दश लक्षणों का पालन किया जाता है | जो हैं – क्षमा, विनम्रता, माया का विनाश, निर्मलता, सत्य अर्थात आत्मसत्य का ज्ञान – और यह तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति मितभाषी हो तथा स्थिर मन वाला हो, संयम – इच्छाओं और भावनाओं पर नियन्त्रण, तप – मन में सभी प्रकार की इच्छाओं का अभाव हो जाने पर ध्यान की स्थिति को प्राप्त करना, त्याग – किसी पर भी अधिकार की भावना का त्याग, परिग्रह का निवारण और ब्रह्मचर्य – आत्मस्थ होना – केवल अपने भीतर स्थित होकर ही स्वयं को नियन्त्रित किया जा सकता है अन्यथा तो आत्मा इच्छाओं के अधीन रहती है – का पालन किया जाता है तथा क्षमायाचना और क्षमादान दिया जाता है | श्वेताम्बर परम्परा में यह पर्व आठ दिन का होता है और दिगम्बर परम्परा में दस दिन का | श्वेताम्बरों का पजूसन पर्व समाप्त होते ही दूसरे दिन से भाद्रपद शुक्ल पंचमी से दिगम्बरों का पर्यूषण पर्व आरम्भ हो जाता है और यह पर्व दस दिनों तक चलता है तथा भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा (अनन्त चतुर्दशी) को सम्पन्न होता है | इन दिनों में भगवान महावीर की पुण्य कथा का श्रवण किया जाता है | भगवान ने अपनी कठोर साधना के द्वारा जिन सत्यों का अनुभव किया था वे संक्षेप में ३ हैं – दूसरे के दुःख को अपना दुःख समझकर जीवन व्यवहार चलाना, जिससे जीवन में सुखशीलता और विषमता के हिंसक तत्वों का समावेश न हो | अपनी सुख सुविधा का समाज के हित के लिये पूर्ण बलिदान देना, जिससे परिग्रह लोकोपकार में परिणत हो | सतत् जागृति और जीवन का अन्तर्निरीक्षण करना, जिससे आत्मपुरुषार्थ में कमी न आने पाए |
सच्चा सुख और सच्ची शान्ति प्राप्त करने के लिये एकमात्र उपाय यही है कि व्यक्ति अपनी जीवन प्रवृत्ति का सूक्ष्मता से अवलोकन करे | और जहाँ कहीं, किसी के साथ, किसी प्रकार भी की हुई भूल के लिये – चाहे वह छोटी से छोटी ही क्यों न हो – नम्रतापूर्वक क्षमायाचना करे और दूसरे को उसकी पहाड़ सी भूल के लिये भी क्षमादान दे | सामाजिक स्वास्थ्य के लिये तथा स्वयम् को जागृत और विवेकी बनाने के लिये यह व्यवहार नितान्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है | इस पर्व पर इसीलिये क्षमायाचना और क्षमादान का क्रम चलता है | जिसके लिये सभी जैन मतावलम्बी संकल्प लेते हैं “खम्मामि सव्व जीवेषु सव्वे जीवा खमन्तु में, मित्ति में सव्व भू ए सू वैरम् मज्झणम् केण वि |” अर्थात् सब जीवों को मै क्षमा करता हूं और सब जीव मुझे क्षमा करे | सब जीवों के साथ मेरा मैत्री भाव रहे, किसी के साथ भी वैर-भाव नही रहे | और इस प्रकार क्षमादान देकर तथा क्षमा माँग कर व्यक्ति संयम और विवेक का अनुसरण करता है, आत्मिक शान्ति का अनुभव करता है | किसी प्रकार के भी क्रोध के लिये तब स्थान नहीं रहता और इस प्रकार समस्त जीवों के प्रति प्रेम की भावना तथा मैत्री का भाव विकसित होता है | आत्मा तभी शुद्ध रह सकती है जब वह अपने से बाहर हस्तक्षेप न करे और न ही किसी बाहरी तत्व से विचलित हो। क्षमा-भाव इसका मूलमन्त्र है । यह केवल जैन परम्परा तक ही नहीं वरन् समाजव्यापी क्षमापना में सन्निहित है | मन को स्वच्छ उदार एवं विवेकी बनाकर समाज के संगठन की दिशा में इससे बड़ा और क्या प्रयत्न हो सकता है |
और इस सबके साथ ही क्षमायाचना के साथ साथ आप सभी को पर्यूषण पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ…….