मनुष्य के विचार, भावनाएँ और सम्वेदनाएँ परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं | मनुष्य जैसा सोचता है, किसी व्यक्ति अथवा वस्तु अथवा किसी भी विषय में या स्वयं अपने ही विषय में जैसा विचार रखता है, वैसी ही उसकी सोच – उसकी कल्पना – बन जाती है, और उसी कल्पना के अनुरूप उसकी भावनाएँ बनती जाती हैं | अर्थात हमारे विचारों का – हमारी सोच का – हमारी भावनाओं पर पूर्ण रूप से प्रभाव पड़ता है | भावनाओं के अनुरूप ही हमारी सम्वेदनाएँ विकसित होती जाती हैं |
मान लीजिये हम किसी दु:स्वप्न के विषय में लगातार विचार कर रहे हैं तो हमारी भावनाओं में वही दु:स्वप्न बसा रहेगा और हमारी सम्वेदनाएँ उस दु:स्वप्न को निश्चित रूप से आकर्षित करेंगी | इसलिए सुखी जीवन के लिए यह आवश्यक है कि अपने विचारों को – अपनी सोच को – भली भाँति नियन्त्रित करके सकारात्मक बनाया जाए, ताकि हमारी भावनाएँ और सम्वेदनाएँ भी उसी प्रकार से सकारात्मक रहें |
यह निश्चित है कि हमारी भावनाएँ और सम्वेदनाएँ जिस प्रकार की होंगी उसी प्रकार का हमारा वर्तमान होगा, और भविष्य की नींव हमारे वर्तमान में ही पड़ जाती है |