नौ नवम्बर की शाम कुछ आवश्यक लिखना था इस कारण टी वी ऑन ही नहीं कर पाई थी और मोदी जी का देश के नाम वो ऐतिहासिक सम्बोधन भी नहीं देख पाई थी | अचानक व्हाट्सअप पर धड़ाधड़ मैसेज आने शुरू हो गए | “इतने सारे मैसेजेज़, पल भर को भी नहीं रुक रहे, आज किस पर्व की बधाईयाँ लोग दे रहे हैं…” उत्सुकतावश फोन उठाया तो पता चला मोदी जी ने पाँच सौ और हज़ार रूपये के नोट बन्द कर दिए हैं |
हज़ारों की तादाद में मैसेजेज़… कुछ सरकार के इस क़दम का समर्थन करते हुए तो कुछ जोक्स और कार्टून्स… तुरन्त अपने एक मित्र को फोन किया “प्रवीण जी क्या ये सच है…?”
“जी पूर्णिमा जी बिल्कुल सच…” उधर से जवाब आया, और सारा लिखना पढ़ना भूल पहुँच गई ड्राइंगरूम में और टी वी ऑन करके बैठ गई | बात सही थी – हर चैनल पर यही छाया हुआ था | कुछ देर टी वी देखा, फिर कुछ मैसेजेज़ अपने पतिदेव को फॉरवर्ड किये – क्योंकि वो कहीं बाहर गए हुए थे | और फिर सारी रात यही बेचैनी भरे लोगों के मैसेजेज़, फोन कॉल्स… लोग जैसे बौखला गए थे…
अगली सुबह अखबार इन्हीं सारे समाचार ों, बहसों और “लोग क्या करें क्या न करें” जैसी जानकारियों से भरे हुए थे | सारा दिन टी वी चैनलों पर यही मुख्य समाचार बने रहे – जो होना भी था – इतना बड़ा निर्णय सरकार ने पल भर में ले लिया , हर अखबार इन्हीं समाचारों से भरा हुआ था | लोगों से फोन पर बात की जाए तो यही बात सबसे पहले | घर से बाहर किसी काम से निकलते तब भी सबसे पहली बात यही | हर तरफ इस समाचार से पागलपन सा छाया हुआ था | यहाँ तक कि आज तक भी यही समाचार गरमागरम समाचार बना हुआ है |
आज भी एक मित्र घर आई थीं और उनसे यही बात हो रही थी कि बैंकों के बाहर सुबह से लम्बी लम्बी लाइन लगी हुई हैं नोट बदलवाने के लिए | तभी माँ जी का फोन आ गया | बातों में लगी होने के कारण दो बार रिंग सुनाई नहीं दी, जब सुनाई दी तो पता लगा तीन चार मिस्ड कॉल्स थीं | जब तक उनका फोन रिसीव नहीं कर लेते वे बार बार मिलाती ही रहती हैं – घबरा जाती हैं कि फोन क्यों नहीं उठा रहे, सब ठीक भी होगा या नहीं… उम्र का तक़ाज़ा और ऊपर से हद दर्ज़े का भोलापन… वापस फोन मिलाकर पूछा “नमस्ते माँ जी ! क्या बात हुई ? सब ठीक तो है ?” हमेशा की तरह रटा रटाया उत्तर मिला “नहीं, तुमने फोन नहीं उठाया तो मैंने सोचा पूर्णिमा फोन क्यों नहीं उठा रही, कहीं किसी की तबियत तो ख़राब नहीं हो गई…”
“अरे नहीं माँ जी, यहाँ सब ठीक है, आप चिन्ता मत कीजिए | बस वो मिसेज़ रस्तोगी बैठी थीं तो उन्हीं से बात कर रहे थे इसलिए आपका फोन सुनाई नहीं पड़ा…” माँ जी जानती हैं मेरे सभी मित्रों को, बोलीं “अच्छा वो… और क्या बात हो रही है उनसे…”
“पाँच सौ और हज़ार रूपये के नोट बन्द कर दिए गए हैं न, उसी पर बात हो रही थी…”
“अरे हाँ, सुबह दिनेश का फोन भी आया था कि योगीराज को भेजकर नोट बदलवा लेना | पर पूर्णिमा ये नोट बन्द क्यों कर दिए ? क्या ये सही नहीं थे ? ये तो सालों से चल रहे थे… पुराने पड़ गए होंगे इसलिए बन्द किये होंगे…” स्वर में उत्कंठा थी |
“नहीं माँ जी पुरानें नहीं पड़ गए थे | असल में बड़ा अच्छा काम किया है मोदी जी ने | देश में इतना काला धन इकठ्ठा है उसे निकालने का ये तरीक़ा बहुत अच्छा है | अब सबको घरों से रूपये निकालकर बैंक में जमा कराने ही पड़ेंगे, और कोई चारा नहीं…” उत्साह में बोल तो दिया, पर बाद में ख़याल आया माँ जी बेचारी “काला धन” क्या जानें, जिन्होंने कभी अपने हाथ में खर्च करने के लिए भी रूपये बड़ी मुश्किल से पकड़े | तो समझाने की कोशिश की “लोग टैक्स से बचने के लिए नम्बर दो का पैसा अपने घरों में छिपा कर रख लेते हैं उसे काला धन कहते हैं…”
“अच्छा… पर लोग घरों में इस तरह से रूपये रखते ही क्यों हैं ? ऐसे कितने खर्च हो जाते होंगे उनके…? खाना तो वही दो वक़्त की रोटी दाल चावल है… वही दो कपड़े तन पर डालने हैं… ज़्यादा से ज़्यादा हुआ तो किसी होटल में खाना खा आएँगे, तो उसमें भी कितना ख़र्च हो जाएगा, फिर ऐसे काम करते ही क्यों हैं…?” भोलेपन से माँ जी ने पूछा |
“ऐसा ही है माँ जी, अच्छा बताइये आप क्या कर रही थीं…” बात को टालने की गरज से पूछा | “अरे कुछ नहीं, वो एक सीरियल आता है ना अकबर बीरबल, वही देख रही थी… अच्छा पूर्णिमा ये बताओ…” और फिर सीरियल की चर्चा चल निकली, नोटों की चर्चा वहीं समाप्त |
उन्हें समझाना बड़ा मुश्किल था कि लोग रिश्वत क्यों लेते हैं, जमाखोरी क्यों करते हैं, पैसे का फूहड़ दिखावा क्यों करते हैं और टैक्स की चोरी क्यों करते हैं | उन्होंने तो चार पाँच साड़ियों से ऊपर कपड़े कभी अपने पास नहीं रखे | सादा भोजन सदा किया | घूमने फिरने का भी ऐसा कोई शौक़ कभी नहीं रहा | बस किसी ज़माने में पिक्चर देखने का शौक़ ज़रूर था जो पिताजी पूरा कर दिया करते थे, बाद में कभी कभी हम लोगों के साथ भी देख आया करती थीं | या फिर लता जी और मन्ना डे साहब के गाए शास्त्रीय रागों पर आधारित फ़िल्मी गीत | टी वी पर ऐतिहासिक या धार्मिक कथाओं पर बने दो चार धारावाहिक देख लेती हैं | मोहल्ले पड़ोस में भी राम राम सबसे है पर अधिक कहीं आना जाना उन्हें पसन्द नहीं |
उन बेचारी को न तो नोटों के बन्द हो जाने से कोई मतलब न मोदी जी के इस साहसिक क़दम पर विरोधियों द्वारा की जा रही राजनीति से कोई लेना देना | न इस धटना पर लगातार शेयर किये जा रहे जोक्स और कार्टून्स उनकी समझ में आते हैं | उनके लिए जैसे ये सारी बातें फ़ालतू की बातें हैं | चीज़ों के बढ़ते दाम उनकी समझ में नहीं आते | वो अभी भी अपनी उसी अस्सी पिचास्सी साल पहले वाली दुनिया में जी रही हैं | उनको आश्चर्य होता है कि आजकल सब्ज़ी के साथ हरा धनिया कोई सब्ज़ी वाला फ्री में नहीं देता, अच्छे पैसे लेता है | उनको आश्चर्य होता है टी वी पर ये देखकर कि दूध और खोया नक़ली भी बनाया जा सकता है | उन्हें दुःख होता है इस बात से कि अब सब्ज़ियों-दालों-मसालों में वो पहले से स्वाद नहीं रहे | इसी तरह की बहुत सी बातें हैं जो उनके लिए आश्चर्य का विषय बनी हुई रहती हैं, और फिर उनके शुरू हो जाते हैं बच्चों जैसे भोले सवाल…
कभी कुछ दुनियादारी की बात उनके सामने की भी जाए तो उनका जवाब होता है “अरे मुझे क्या करना है अब ये सब जानकर, बची ही कितनी है अब…” जितने वस्त्र उन्हें चाहियें उससे एक भी ज्यादा आ जाए तो “क्यों ले आए इतने…?” और अगले दिन वो नई की नई साड़ी किसी कामवाली के शरीर की शोभा बढ़ा रही होती है | माँ जी को कुछ नहीं चाहिए, बस उनके कल्याण के अंक भले या टी वी के दो तीन धारावाहिक भले या फिर अपनी पूजा पाठ भला – और पूजा पाठ भी अपने लिए नहीं – उनकी सन्तान – उनका परिवार सदा सुखी रहे, स्वस्थ रहे, खुश रहे… केवल इसी कामना से…
और ये केवल हमारी माँ जी की ही बात नहीं है, हिन्दुस्तान में न जाने कितनी माँएँ इसी भोलेपन में जिए चली जा रही हैं | जो लोग सरकार द्वारा देश के कल्याण की भावना से उठाए गए हर साहसिक क़दम पर राजनीति करने से नहीं चूकते, या सोशल नेट्वर्किंग पर भद्दे भद्दे चुटकुले शेयर करके ऐसी घटनाओं की गम्भीरता को कम करने का प्रयास करते हैं काश वे समझ पाएँ ऐसी भोली माँओं की भावनाएँ…
आज काफ़ी लोगों को शिक़ायतें रहीं कि बैंकों के बाहर लम्बी लाइन लगी हुई थी नोट बदलवाने वालों की, दो दो तीन तीन घंटे इंतज़ार करना पड़ा | माना नोट बदलवाने जाना ज़रूरी है, पर दो तीन घंटे अगर लाइन में खड़ा होना पड़ भी गया तो क्या समस्या हो गई ? भूल गए लोग जब पहले गैस की लाइन में लगना पड़ता था, रेलवे टिकट की लाइन में लगना पड़ता था, बैंकों में किसी काम के लिए जाते थे तो वहाँ भी लम्बी लाइन मिलती थी | आज तो हर काम कम्प्यूटर पर बैठे बिठाए हो जाता है, ऐसे में अगर नोट बदलवाने के लिए दो तीन घंटे लाइन में लगना भी पड़ गया तो क्या हो गया ? और फिर सब लोग आज ही क्यों लाइन में जाकर लग गए | तीस दिसम्बर तक का समय है, धीरे धीरे काम हो जाएगा, कोई ज़ल्दबाज़ी नहीं है | हर घर में महीने भर का राशन लेकर लोग रखते हैं | तो खाने पीने के सामान की तो कोई तंगी है ही नहीं | कल कुछ दवाएँ मंगानी थीं, कैमिस्ट ने अपने आप ही बोल दिया “पैसे मत दीजियेगा, बाद में इकट्ठे ले लूँगा | अभी कुछ दिन सभी ग्राहकों से यही बोल रहा हूँ | डायरी में लिख लिया है |” सुनकर तसल्ली मिली | आजकल सब्ज़ीवाला, दूधवाला, प्रेस वाला, पेपर वाला, काम वाली बाई वगैरा हर कोई तो बाद में इकट्ठे पैसे लेने को तैयार रहता है, फिर ये हड़बड़ी क्यों ? और जो बेचारे रोज़ कमाकर खाते हैं – जिन्हें हैण्ड टू माउथ कहा जाता है – उनके पास तो बड़े नोटों का वैसे ही कोई प्रश्न नहीं |
तो, समस्या कोई नहीं है | पर समस्या है… हमारे समाने समस्या है… और समस्या ये है कि अपनी माँ जी को कैसे समझाएँ कि लोग इतनी हड़बड़ी में क्यों हैं ? उन्हें बताया योगीराज ने “माता जी आज तो बैंक के बाहर तक लम्बी लाइन लगी थी, आज नोट नहीं बदले जा सके…” उनका जवाब था “अरे तो कोई बात नहीं, दो तीन दिन बाद चले जाना, ऐसी कोई परेशानी नहीं है, घर में दाल चावल सब्ज़ी सब तो रखा है… दूध वाले का हिसाब महीने के आख़िर में होता है… तो परेशानी क्या है… बाद में छीड़ (भीड़ हल्की) होने पर चले जाना…”
काश हम सब ऐसी ही भोली माँ के जैसे बन जाएँ… जो भोलेपन से ऐसी समझदारी की बातें कर जाती हैं… साथ में सीमित आवश्यकताएँ… सादा खान पान और रहन सहन… चादर की लम्बाई देखकर पैर पसारने की आदत बना लें… सच मानिए ये सारी नम्बर दो जैसी समस्याएँ अपने आप ही समाप्त हो जाएँगी… फिर कभी इस तरह नोट बन्द करने या बदलने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी… न ही कभी हमारी माँ जी को पूछना पड़ेगा “ऐसा क्यों…?”