मैं हूँ मन, मैं हूँ बुद्धि...
मैं हूँ लहर, मैं ही हूँ सागर भी...
किन्तु नहीं है अधिकार मेरा आज़ादी पर लहरों की...
हाँ, सागर का रेतीला तट अवश्य है नीचे मेरे पाँवों के
जो कभी भी खिसक कर
गिरा सकता है मुझे नीचे
उसी तरह, जैसे मेरी बुद्धि
खींचती है मुझे नीचे, और नीचे...
मैं ही हूँ पवन, मैं हूँ मलय सुगन्ध भी...
किन्तु नहीं रोक सकती मैं स्वच्छन्द प्रवाहित होती मलय पवन को
उसे है अधिकार लुटाने का मेरी सारी सुगन्ध
मानस पर समूची प्रकृति के
क्योंकि प्रकृति से ही तो पाई है मैंने ये सुवास...
मन का क्या है...
मन तो इकठ्ठा करता है ज्ञान
और ख़ुद क़ैद हो जाता है उसी ज्ञान में
और हो जाते हैं बन्द द्वार नवीन ज्ञान के...
जो कुछ ज्ञान है मुझे वह है मात्र आकार
और है कला पूर्ण करने की कार्य को...
जिसने विस्मृत करा दिया है उस ज्ञान को
कि नहीं है मुझसे परे कुछ भी...
जिसने तिरोहित करा दिया है उस अहसास को
कि मैं एक हूँ
लहरों और समुद्र की तरह...
पवन और सुगन्ध की तरह...
कि मैं वही हूँ, अरे मैं ही तो हूँ “वह” !!!
https://purnimakatyayan.wordpress.com/2018/07/30/अरे-मैं-ही-तो-हूँ-वह