आज मैं अपनी डायरी को ज़िंदगी के एक पहलू कहूँ या कुछ और, किन्तु इतना मैं अवश्य जानती हूँ ,उसे हम भाग्य अथवा क़िस्मत कहते है -इनके इशारों पर ही तो ,हमारी ज़िंदगी चलती है। हम सोचते हैं -जो भी कार्य हम कर रहे हैं ,अपनी मेहनत और लग्न से कर रहे हैं ,इस बात पर कुछ लोगों को अहंकार भी हो जाता है कि हमारे पास जो भी है हमारी अपनी मेहनत और कर्मों का नतीजा है किन्तु ये नहीं सोचते कि ये सब हमारे भाग्य में ही लिखा था ,''हम तो बस अपना कर्म करते हैं किन्तु होता वही है जो भाग्य में लिखा होता
है। हमारे बड़े -बूढ़े भी कहते सुने गए हैं कि हमारे जन्म के समय ही हमारा भाग्य तय हो जाता है और उसी के चलते हमारे विचार और कर्म बनते रहते हैं। कुछ इसके विपरीत भी बोलते हैं किन्तु जब ज़िंदगी उन्हें उनकी असलियत से रूबरू कराती है तो वे भी भाग्य को मानने के लिए तत्पर हो जाते हैं।कई बार हम सोचते कुछ और हैं और होता कुछ और है, ये सब हमारे नसीब का ही तो खेल है। अब देखो न ,बातों ही बातों में ,मैंने भाग्य ,क़िस्मत ,नसीब कितने नाम गिना दिए ?नाम भले ही कई हों अर्थ तीनों का एक ही है।
पुरानी कहावत है -भाग्य के लिखे को कोई नहीं मिटा सकता ,इसे राजा को रंक और रंक को राजा बनाने में देर नहीं लगती। इसी विषय पर मैं तुम्हें एक कहानी बताती हूँ। -
एक राजा था। उसका राज्य बहुत ही ख़ुशहाल था ,उसके तीन बेटियाँ थीं ,सब कुछ शांति पूर्ण तरीके से चल रहा था। राजा की तीनो बेटियाँ ,अपने पिता से बेहद प्रेम करती थीं। एक दिन राजा अपने महल की छत पर टहल रहा था ,सब ओर शांति थी ,यह देख वो अत्यंत प्रसन्न था। कुछ देर पश्चात ,पता नहीं राजा को क्या सूझी ?राजा जब दरबार में गया तो बोला -सभी लोग मेरा दिया ,मेरे भाग्य का खाते हैं ,सभी दरबारियों ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा -जी महाराज ,हम सभी आपका दिया और आपके भाग्य का खाते हैं।राजा उनकी बात सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुआ। तभी दरबार में ,उसकी बेटियां भी आ गयीं। राजा ने सोचा -लगे हाथ बेटियों से भी ,इस बात पर समर्थन की मुहर लगवा लेते हैं और अपनी बेटियों से बोला -मेरी प्यारी बच्चियों ,क्या तुम लोग भी मेरा दिया खाती हो ,मेरे भाग्य का खाती हो। दोनों बड़ी बेटियाँ बोलीं -जी पिताजी महाराज !हम आपका दिया और आपके भाग्य का खाती हैं किन्तु तीसरी बेटी मोहिनी चुप रही। महाराज ने देखा तो बोले -बेटा मोहिनी !क्या तुम मेरी बात से सहमत नहीं हो ?
मोहिनी बोली -जी नहीं ,महाराज ऐसी कोई बात नहीं ,वैसे तो मैं आपके राज्य में रहती हूँ और आप हमारे पालनहार हैं किन्तु रही बात भाग्य की ,तो वो ,मैं अपने नसीब का खाती हूँ। भरे दरबार में ,किसी ने भी राजा की बात का विरोध नहीं किया और उसकी अपनी ही बेटी उसके विरुद्ध बोल रही है ,इसमें राजा को अपना अपमान लगा उसने अपने क्रोध पर नियंत्रण करते हुए , कहा -बेटी मोहिनी ,कहीं तुम भूलवश गलत तो नहीं बोल गयीं। जी नहीं, पिताजी महाराज !मैं अपने भाग्य का दिया ही खाती हूँ ,उसने पुनः अपनी बात दोहरा दी। सभी दरबारी शांत थे। इस बार राजा को क्रोध आ गया और बोला -देखते हैं !तुम कैसे अपने भाग्य का खाती हो। ये भाग्य ही तो अपना खेल ,खेल रहा था।
कुछ दिनों पश्चात ,राजा ने अपनी दोनों बेटियों का विवाह ,किसी बड़े राज्य के राजकुमारों के संग कर दिया। और तीसरी बेटी मोहिनी का विवाह एक कव्वे से कर दिया ,जो उनके महल की मुँडेर पर आ बैठ गया था। मोहिनी ने इस विवाह का विरोध किया, किन्तु राजा को तो जैसे ज़िद थी ,बोला -अब अपने भाग्य का खाओ। और उसे राज्य से कुछ दूरी पर एक जमीन का टुकड़ा दे दिया। मोहिनी उस कव्वे को साथ लेकर ,महल से बाहर आ गयी। उस जमीन पर जाकर देखा तो ,वो बंजर जमीन थी। कहाँ वो ,महलों में रहने वाली नाजुक़ सी राजकुमारी और कहाँ आज वो बंजर जमीन पर अपने पति कव्वे के साथ थी। भाग्य का खेल ,वो समझ नहीं पाई और घबराकर रोने लगी।
उसने कव्वे को उड़ाना चाहा किन्तु वो उड़ा नहीं ,उसी के संग रहा। कहने लगी -ये देखो ''भाग्य का खेल ''एक राजकुमारी कव्वे पति के साथ इस बंजर जमीन पर आ गयी। ''फिर उसने सोचा -इस तरह रोने से काम नहीं चलेगा ,उसने साहस से काम लिया। पहले तो वो नदी किनारे गयी स्नान किया पानी पिया और उस कव्वे को एक टीले पर बिठाकर ,समीप के बगीचे से ,कुछ फ़ल तोड़कर लाई और अपने पति को भी दिए। तभी तेज़ हवा चलने लगी ,उसने सोचा ,इस तरह तो नहीं रहा जा सकता ,एक झोंपड़ी ही बनानी पड़ेगी और वो कुछ डंडे घास इत्यादि एकत्र कर ,गड्ढा खोदने लगी ताकि उन डंडों को ठीक से टिका सके। अभी गड्ढा एक हाथ ही खोदा था ,तभी किसी चीज़ से वो पत्थर टकराया। अब तो मोहिनी की उत्कंठा जगी और उसने और गहरा गड्ढा खोदा ,खोदते -खोदते उसे शाम हो गयी। उसमें से एक बड़ा कलश निकला जो ''स्वर्ण अशर्फ़ियों'' से ,भरा पड़ा था।
अगले दिन राजकुमारी ने ,वहाँ महल की नींव डलवा दी और
कुछ ही महीनों में , उस स्थान पर ,अपने पिता से भी बड़ा सुंदर और शानदार महल खड़ा हो गया। इस बीच वो कव्वा ,हमेशा उसके संग रहा ,अब तो राजकुमारी को अपने उस ,कव्वे पति से प्रेम भी हो गया और दोनों संग -संग रहते। एक दिन मोहिनी ने प्रेमवश आवेश में आकर ,उस कव्वे को चूम लिया ,उसके चूमते ही एक चमत्कार हुआ ,वो कव्वा एक बहुत ही सुंदर राजकुमार में बदल गया। तब उसने बताया -मुझे अपने सुंदर होने पर अहंकार था ,एक दिन मैंने उसी अहंकार में जादूगरनी का अपमान किया ,तब उस जादूगरनी के श्राप से वो कव्वा बन गया था और तुमने इस बद्सूरत कव्वे को प्रेम करके उसका श्राप तोड़ दिया।
ये सभी बातें मोहिनी के पिता के पास भी पहुँची और वो ये सब देखने स्वयं अपनी बेटी के महल में आया और उसका ठाठ -बाट देखकर अचम्भित रह गया और वो राजकुमार से भी मिला अब उसे लगा -कि माध्यम कोई भी हो सकता है किन्तु खाते सब अपने नसीब का है। अब राजा ने उस राजकुमार से अपनी बेटी का पुनः विवाह करके उसके राज्य के लिए ,ख़ुशी -ख़ुशी विदा कर दिया।