रामदीन कुम्हार ,प्रतिदिन जोहड़ से चिकनी मिटटी लाता और उसे पैरों से रोंद्ता ,जब वो मिटटी बर्तन बनाने लायक हो जाती तो उसे चाक पर रखकर ,बड़े क़रीने से ,सुंदर -सुंदर मिटटी के बर्तन बनाता। ये उसकी कला ही नहीं ,उसकी जरूरत भी है। पूरा गांव ही उसके बनाये ,मिटटी के घड़ों में पानी पीता। दीपावली के दिए ,''करवा चौथ '' पर करवे भी उसी के घर से जाते। रामदीन मेहनती और ईमानदार था
और अपने प्रभु का भक्त भी । उसका एक भाई भी था ,उसने विवाह करके अपना अलग घर बसा लिया उसका भी यही काम था। अब तो गांव के आधे लोग ,रामदीन से बर्तन लेते ,आधे उसके भाई से ,फिर भी वो ख़ुश रहता। रामदीन का एक बेटा ,जो उसके समीप ही मिटटी में खेलता रहता ,वो अपने पिता को मिटटी बनाते और उससे बर्तन बनाते देखता। थोड़ा बड़ा हुआ ,खेल ही खेल में उसने कुछ खिलौने बनाये ,उन्हें देखकर उसका पिता प्रसन्न हुआ और अपने घर के ही किसी कोने में रख दिया। उसका बेटा गाँव के विद्यालय में ही पढ़ता था ,जिस कारण उसकी कल्पना शक्ति बढ़ती जा रही थी और वो नई -नई चीजें सोचता और बनाता। उन खिलौनों को देखकर उसका पिता प्रसन्न हो ,उन्हें आवे में पकाकर रख देता। ये चीजें उसके बेटे के हाथों बनाई थीं ,ये ही उसके लिए सबसे बड़ी पूंजी थी।
एक बार रामदीन ,बिमार पड़ा तो, महीना हो गया किन्तु वो ठीक होने का नाम नहीं ,ले रहा था । गरीब के लिए तो दो दिन भी भारी हो जाते हैं ,जब वो बीमार पड़ा, तब बर्तन कौन बनाये ?जो उसके ग्राहक थे ,वे भी उसके भाई से सामान लेने लगे। घर में पैसों की तंगी बढ़ने लगी। कोई तरस खाकर ,थोड़ी बहुत सहायता कर भी देता तो कब तक ऐसे ही चलता ?एक उसकी पत्नी ने मिटटी बनाई ,माँ -बेटे ने [ मोहन ]स्वयं ही चाक चलाने का प्रयत्न किया किन्तु पिता जैसे बर्तन नहीं बना पाया ,कभी रामदीन ने उसे ये काम करने ही नहीं दिया ,कहता -तू बस पढ़ ले। अब परेशानी में उसे भी लग रहा था ,काश.... थोड़ा काम सीखा देता तो अब इनके काम आ जाता ,यूँ पैसों के लिए परेशान न होना पड़ता। पता नहीं ,भगवान को क्या मंजूर है ?न जाने कौन सी लीला रच रहे हैं ?निराश हो रामदीन अपने भगवान से प्रश्न करता।
एक दिन ऐसे ही मोहन बैठा था ,तभी उसकी निग़ाह अपने बने खिलौनों पर गयी ,उसने उन्हें उठाया और अपना रंगों का डिब्बा लाकर उनमें रंग भरने लगा। वे तो जगमगा उठे ,उन्हें लेकर वो हाट गया ,उसका पूरा का पूरा टोकरा बिक गया और वो भी अच्छे दामों में ,अब तो उसका उत्साह बढ़ा और उसने अपने मन से तरह -तरह के खिलौने बनाये ,अबकि बार ज्यादा थे ,इस बार भी उसके सभी खिलौने बिक गए। अब तो वो बाजार से और महंगे रंग और भी सजावट की वस्तुएं लाता और उन खिलौनों को सजाता।अब वो खिलौने टोकरे में नहीं ,ठेले में बेचने जाता। घर का खर्च ,पिता की दवाई का खर्चा भी चला और पैसे भी बचे। अब मोहन दिन में अपने विद्यालय जाता और रात्रि में खिलौने बनाता। हालाँकि अब मोहन की इच्छा नहीं थी, कि वो पढ़ने जाये किन्तु रामदीन चाहता था। अब तो धीरे -धीरे ,उनका खिलौनों का काम ही बढ़ गया। रामदीन अब भी घड़े बनाता किन्तु अब उनकी बिक्री भी इतनी नहीं रही। लोग आगे बढ़ रहे हैं ,मटकों की जगह ,बिजली की मशीन से बना ठंडा पानी पीने लगे ,दीयों की जगह ,मोमबत्तियों ने ले ली किन्तु मोहन के खिलौनों की आज भी उतनी ही माँग थी।
अब मोहन को अपने हुनर पर ,अहंकार हो गया और एक दिन बोला -आपने पूरी ज़िंदगी भी इतना न कमाया होगा जितना ,मैंने कुछ महीनों में ही कमा लिया। रामदीन हंसा और बोला -''तूने अजब रचा भगवान खिलौना माटी का।'' मोहन को कुछ भी समझ नहीं आया ,बोला -खिलौने तो मैं बनाता हूँ ,इसमें उसका क्या योगदान ?रामदीन हंसकर बोला -मोहन होकर भी ,मोहन की लीला नहीं समझा। ये मिटटी तो वही है ,जिससे मैं मटके ,करवे और सराई बनाता हूँ ,सिर्फ तुमने रूप बदल दिया तो खिलौने बन गए। इससे पता चलता है-'[' कि मानव सजावटी वस्तुओं को अधिक महत्व देने लगा है।'' जबकि घड़े का पानी तन मन दोनों को शीतल करता है। तुम्हें मैं पहले भी ये कार्य सीखा सकता था किन्तु मैंने सोचा -शिक्षा का ज्ञान ,तुम्हारी योग्यता को बढ़ाएगा किन्तु उसकी लीला देखो -उसकी कृपा थी ,उसने लीला रची और मैं बीमार हो गया जिस कारण ,तुम्हारी प्रतिभा ऐसे समय में उभरकर आई। उसने जो अपने खिलौने रचे हैं ,उनकी परीक्षा भी तो लेता है ,अब तुममें प्रतिभा के साथ -साथ अहंकार भी आ गया। तुम्हारे बनाये खिलौने तो तुम हाट में बेच आते हो ,क्या तुम उससे भी बड़े कलाकार हो ?जो हम और तुम जैसे खिलौनों की रचना करता है और अपने ही हिसाब से ,चलाता है ,उनकी परीक्षा लेता है और उनके कर्मो के आधार पर परिणाम भी देता है।
मेरे बच्चे उसकी बनाई ,इतनी बड़ी सृष्टि में ,न जाने उसके बनाये , ऐसे कितने खिलौने होंगे जो तुमसे भी बेहतर होंगे ?और न जाने कितने अपने कर्मों की लड़ाई लड़ रहे होंगे ?इसीलिए वो जो जिस हाल में रख रहा है ,उसी में हमारी कुछ न कुछ भलाई ही छिपी होगी ,जो कुछ भी है ,उसी की देन है तो फिर किस बात का अहंकार ?अपने पिता की बात सुनकर ,मोहन को अपनी गलती का एहसास हो गया और वो खिलौनों के साथ -साथ अपनी पढ़ाई भी करता ,वो समझ चुका था ,उससे बड़ा कलाकार तो कोई भी नहीं।