शापित कोई स्थान ,व्यक्ति अथवा कोई वस्तु नहीं होती ,वरन शापित उसका अपना जीवन ही हो जाता है। जिस जीवन को, वो जी रहा है ,उस जीवन को जीते -जी ठीक से नहीं जी पाता। लोग कहते हैं -''ये जीवन अमूल्य है '' किन्तु कई बार ये अमूल्य जीवन जीना भी मुश्किल लगने लगता है वरन वो किसी शाप से कम नहीं लगता। एक लाचार ,ग़रीब व्यक्ति का जीवन भी उसके लिए शाप बन जाता है ,उसकी ग़रीबी ही उसका शाप है। ये ग़रीबी भी न ,व्यक्ति से क्या -क्या न करा दे ? उतना ही थोड़ा !
रामदास तो अपने भगवान का भी भक्त है ,दिन -रात उनका ही सुमिरन करता रहता है ,उसे अपने प्रभु पर पूर्ण विश्वास है। किन्तु पता नहीं ,उसके भगवान उसकी परीक्षा ले रहे हैं अथवा उसके भाग्य में सुख -शांति लिखी ही नहीं। माँ भी कहती -दिन -रात सुमिरन तो कर, किंतु हाथ -पैर भी चलाने पड़ते हैं इसीलिए तो ''भगवान ने दो हाथ ,दो पैर दिए हैं ''ताकि इनका ठीक तरह से उपयोग कर सको। ऐसा नहीं, कि रामदास कुछ नहीं करता ,वो जमींदार के खेतों पर काम करता है। उसकी एक गइया है ''रामप्यारी ''उसकी सेवा करता है और वो उसे दूध देती है ,जिससे घर का गुजारा हो जाता है ,उसके बाबा ने रामप्यारी को बचपन से ही पाला है ,शायद रामदास के भविष्य के लिए।
बचपन की बात आती है ,तो बचपन में रामदास के स्वप्न भी बड़े थे।पिता के साथ ,ख़ेतों में जाता ,तब कहता -बाबा एक दिन मैं ,दूर देश से बहुत सारे पैसे कमाकर लाऊँगा और हमारे अपने खेत होंगे और तुम भी जमींदार की तरह खेती करवाना। बड़े सपने देखने से क्या होता है ?भाग्य भी तो अच्छा लिखवाकर लाना चाहिए था ,उसके भाग्य में तो पता नहीं क्या लिखा था? अभी उसने सौलह सावन भी ठीक से नहीं देखे और एक बीमारी के चलते, उसके पिता चल बसे। अब तो सम्पूर्ण घर की ज़िम्मेदारी उस नन्ही सी जान ''रामदास ''पर आ गयी। उसका बचपन जमींदार के खेतों में कड़ी मेहनत से बीतने लगा। उसकी बछिया दूध देने योग्य हो गयी तो घर का दूध -दही हो जाता। खेतों से सालभर का अन्न मिल जाता। अब तो रामदास भी जवानी की दहलीज़ पर था। दोनों माँ -बेटा ही थे ,माँ की जिम्मेदारी भी उस पर थी। ऐसे में वो गांव से बाहर जाने की सोच भी नहीं सकता था।
अब तो उसका विवाह एक सुंदर कन्या से हो गया। वो भी गृहकार्यों में अपनी सास का हाथ बटांती ,एक दिन जमींदार को पता चल गया कि रामदास की पत्नी बहुत सुंदर है ,उसने रामदास को सलाह दी कि अपनी पत्नी को भी खेतों के कामों के लिए भेजो !किन्तु रामदास ने साफ इंकार कर दिया ,इस कारण से जमींदार ,उससे कुछ चिढ़ा रहता किन्तु कुछ नहीं कर पाया। अब तो रामदास के एक बेटा भी हो गया। घर की आमदनी तो वो ही गइया का दूध और खेतों से आया अन्न , खाने वाले बढ़ गए।''रामप्यारी '' भी ग्याभन थी घर में छः माह तो कम से कम दूध नहीं। खेतों से इस बार चारा भी कम मिला। घर के अन्य खर्चे भी पूर्ण नहीं हो पा रहे थे। रामदास प्रयत्न करता, अधिक से अधिक कार्य करके घर के खर्चो को कम किया जाये किन्तु कुछ न कुछ अड़चन आ ही जाती।
अब तो उसे भी लगने लगा ,ज़िंदगी इतनी आसान भी नहीं ,जितना वो समझता था। उसकी पत्नी की धोती भी कई जगह से फ़ट चुकी थी किन्तु वो प्रयास करती- किसी को पता न चले उसके लिए ''पैबन्द ''लगा देती ,किन्तु वे ''पैबन्द ''ही उनकी ग़रीबी की कहानी बयान कर जाते। बच्चा दूध को रो रहा है ,पैसे भी नहीं ,कि बाहर से दूध ही ख़रीद लें। उधर ''रामप्यारी ''भी दरवाज़े पर भूखी खड़ी है। घर की ऐसी अवस्था देखकर रामदास ,भगवान से अपने पिछले जन्म के या भूल -चूक में किये गलत कर्मो की'' क्षमा याचना '' करता है। पत्नी ने भी न जाने अपनी कितनी इच्छाएं ,इस ग़रीबी पर स्वाह कर दी। किन्तु हालत है, कि दिन ब दिन ,बद से बदत्तर होती जा रही थी। उधर माँ भी, एक खटिया पर बीमार कराह रही थी। घर की ऐसी स्थिति ने उसे जीवन से निराश कर दिया और वो घर से निकलकर ,मृत्यु की गोद में सोने के लिए चल दिया।
फिर सोचा -उसकी दी ज़िदगी को समाप्त करने से पहले ,उससे ''क्षमा याचना ''कर लेता हूँ ,बच्चो की ज़िम्मेदारी भी , अब उसी की होगी। मैं तो उसके दिए ,जीवन का सम्मान न कर सका किन्तु अब ऐसा ''शापित जीवन ''मैं जीना नहीं चाहता। यही सोचता हुआ ,गाँव से बाहर जँगल की तरफ चल दिया ,वो काफ़ी दूर निकल आया था। तभी उसे उस सुनसान जंगल में ,एक मंदिर दिखलाई पड़ता है। रामदास सोचता है -अब मैं यहीं भगवान से अपनी गलतियों की क्षमा माँग लेता हूँ , और उससे कहे देता हूँ ,मेरे पश्चात , उस परिवार की सुरक्षा का दायित्व , अब तुम्हारे ऊपर है। फिर सोचा -इस सुनसान स्थान में ,ये मंदिर कहाँ से आया ?फिर सोचा -अच्छा ही हुआ ,मरने से पहले भगवान के दर्शन हो जायेंगे।
वो मंदिर के अंदर जाता है ,वो एक शिव मंदिर था। पहले तो वो, वहीं बैठकर क्षमा याचना ''करने लगा और देर तक रोता रहा और अपने प्रभु से प्रश्न करता रहा। रोते -रोते उसकी नज़र एक विचित्र से ''शिलालेख ''पर पड़ी। वो उसके समीप गया और उस पर लिखे को पढ़ने का प्रयास करने लगा। जिस पर लिखा था -''अपने प्रिय की बलि दो ,और गड़ा खज़ाना ले जाओ। ''अब तो वो रोना भूलकर, ये सोचने लगा -''प्रिय की बलि ''किसकी बलि दूँ ?किसी जानवर की किन्तु ये तो हत्या होगी। मैं भी तो मरने ही आया हूँ ,अपनी ही बलि दे देता हूँ किन्तु मैं मर गया तो फिर खज़ाना कौन निकालेगा ?और कौन परिवार के पास ले जायेगा ?फिर ऐसी बलि से क्या लाभ ?जब उस धन का उपयोग ही न कर सकें। एक तरफ ख़जाना था ,दूसरी तरफ दूध न मिलने से बिलखता बच्चा ,पत्नी का मायूस चेहरा ,माँ की बीमारी। मैं तो मरने ही आया था ,शायद भगवान ने ही मुझे जीने का दूसरा दिया हो या देना चाहता हो। यही सोचकर उसके मन में जीने की ललक जाग उठी ,बोला -प्रभु !आप ही कोई उपाय सुझाइये।
रामदास ने सोचा -'मरने के लिए ही तो आया था, क्यों न एक बार अपने भाग्य को आजमा लेता हूँ ?''मौत हो या ज़िंदगी ''जो भी होगा ,देखा जायेगा ,यही सोचकर उसने नंदी की मूर्ति को उठाया और वहीं ''शिवलिंग ''पर नंदी की बलि दे दी। प्रभु आपके प्रिय नंदी की बलि आपको अर्पित करता हूँ। तब उसने वहां से वो खज़ाना निकाल लिया। शिवजी के दो सर्प जो उस धन की रक्षा कर रहे थे ,वो भी चुपचाप ,वहाँ से चले गए। और रामदास सारा धन लेकर घर आ गया और उस धन से उसके दिन सुधरने लगे। उसके जीवन पर जो ग़रीबी का शाप लगा था ,अब वो समाप्त हो गया।