काम तो प्रतिदिन का है, किन्तु आज रीमा के हाथों में जैसे बिजली लगी है ,वो प्रतिदिन से अधिक फुर्ती से कार्य कर रही है ,वह शीघ्र अति शीघ्र अपना कार्य निपटाने का प्रयत्न कर रही है। हो भी क्यों न ?क्योंकि बहुत दिनों बाद वो खुला आसमान देखेगी। उसके मन में अज़ीब सी प्रसन्नता और बेचैनी है।ख़ुशी मिश्रित बेचैनी , उसके काम में झलक रही है। एक -एक काम बड़े ही ध्यान से निपटा रही है ताकि मेरे पीछे किसी भी तरह की परेशानी किसी को न उठानी पड़े। उसकी बेटी मणि बोली -मम्मी आपके मन में ये विचार कैसे आया ?हम तो प्रसन्न हैं कि आप भी घूमने जा रही हो। रीमा बोली -घूमना कहाँ ?ज्यादा दूर नहीं ,मैं तो
मौहल्ले के ही किसी घर में जा रही हूँ ,वहीं हमारी किट्टी है ,वो तो करुणा की मम्मी ने मुझे सुझाया कि तुम भी किट्टी में आया करो ,चार लोगों से जान -पहचान होगी और सारा दिन घर में रहती हो तो मन भी बदल जाया करेगा। मुझे उनकी बात सही लगी कहकर वो फिर से अपने काम में जुट गयी। काम तो वो कर रही थी किन्तु मन तो बीस वर्ष पहले की यादों में खो गया ,जब वो विवाह करके इस घर में आयी थी। सिर पर जिम्मेदारियों का बोझ आते ही पड़ गया या यूँ समझो, जिम्मेदारियां मेरी ही प्रतीक्षा देख रही थीं। कहने को घर की बहु ,लेकिन उससे भी बड़े मेरे कर्त्तव्य ,मैंने भी कोई कमी नहीं की अपनी जिम्मेदारियों को पूर्ण करने में ,मैं एक अच्छी बहु बनना चाहती थी। घर की उस चाहरदीवारी को ही मैंने अपनी ज़िंदगी मान लिया। सास -ससुर अधिक बुजुर्ग़ होने के साथ ही विचारों में भी पुराने ही थे उन्हें तो बहु का घूँघट करना पसंद था ,मैंने भी कोई विरोध नहीं किया। हर परिवार के अपने रीति -रिवाज़ हैं ,उनकी अपनी सोच है।
एक बार तरुण से कहा भी था कि गर्मी के समय में खाना बनाने में और अन्य कामों में पर्दे में परेशानी होती है किन्तु तरुण बोले -तुम ही नहीं आई हो ,अन्य बहुएं भी आई हैं जो घर में पर्दे में रहकर ही घर के सम्पूर्ण कार्य बख़ूबी कर लेती हैं तुम्हें भी धीरे -धीरे आदत पड़ जायेगी। उस दिन के बाद मैंने तरुण से कुछ नहीं कहा। कहकर भी क्या हो जाता ?अपनी किसी भी परेशानी में कभी भी उसे अपने साथ खड़े नहीं पाया। हर बात का उसके पास तोड़ जो था। जब नई -नई विवाहिता थी तब भी मैंने अपने को अकेले खड़ा पाया तब मन में विचार उठे -मैं ये सब क्यों और किसके लिए कर रही हूँ जब अपना पति ही अपने साथ नहीं है किन्तु अगले ही पल अपने मन को ही समझा लिया -''कहना सुनना भी किससे ?बुजुर्ग माता -पिता हैं और अकेले बेटे पर ज़िम्मेदारियाँ ,अपने माता -पिता को भी इस उम्र में क्या कहेंगे ?चार लोग और ताना मा रने के लिए खड़े हो जायेंगे कि बहु ने आते ही अपने सास -ससुर के साथ इस उम्र में अनुचित व्यवहार किया। सारा दिन चक्कर घिन्नी की तरह सास -ससुर और फिर बच्चों के पीछे घूमती रहती ,मेरा अपना एक छोटा सा आकाश था जिसमें मैं पूर्णतः संतुष्ट थी। बाहर घूमना ,बाहर की दुनिया क्या होती है ?जैसे मैं भूल ही गयी बच्चे थोड़े बड़े भी हुए तो मन को लगा कि शायद मेरी ज़िम्मेदारियाँ थोड़ी कम होंगी किन्तु ससुर की बीमारी बढ़ जाने पर मैं पूर्ववत अपने कार्य में लगी रही ,अब तो मुझे सुबह कब हुयी और रात कब आई ?पता ही नहीं चलता। बर्तन वाली आकर बता जाती कि मोेहल्ले में क्या हो रहा है ?उसकी ज़बानी मुझे पता था कि गुप्ताजी के बेटे की बहुत अच्छी नौकरी लगी है। कान्ता मैडम समाज -सेविका हैं ,तरुणा के बेटे ने बारहवीं में पहला स्थान प्राप्त किया। दीपा मैडम की अपनी बहु से नहीं पटती। इतनी जानकारी होने पर भी मैं उन लोगों को नहीं जानती थी। कभी सामने आ जायें तो पहचान ही नहीं पाऊँगी।
पापा ससुर के जाने के बाद अब मुझे सब्ज़ी के लिए बाहर आना पड़ा ,जब वो बीमार थे तो तरुण ले आते था ,अब उन्हें लगा कि मेरे पास समय होगा और लापरवाही कर जाते। कभी मैं सोचती ,क्या तरुण के मन में मेरी भी कोई जगह है ?कभी उसे पति -पत्नी में आपस में सलाह करते या पत्नी की परेशानी को समझते नहीं पाया। मैंने तो इसी ज़िंदगी को ऐसे ही अपना बना लिया। एक दिन ऐसे ही सब्ज़ी खरीदते समय करुणा की मम्मी बोली -रीमा कभी हमारी किट्टी में आओ !रीमा बोली -नहीं दीदी ,अभी घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिलती। कभी बच्चों के पेपर आ जाते हैं ,मम्मीजी का ध्यान भी रखना पड़ता है। तब वो बोली -काम तो जीवनभर का है ,कभी बाहर भी निकलकर देखो, कितना खुला आकाश है ?रीमा मुस्कुराकर बोली -ये सब क़िताबी बातें हैं ,असल ज़िंदगी कुछ और ही है। उसे भी इस तरह की बातें सोचना जैसे मंजूर ही नहीं था और वो अंदर आ गयी। एक माह की बिमारी के पश्चात सासु माँ भी चली गयीं। बेटा पढ़ाई के लिए बाहर चला गया ,बेटी भी नौकरी करने लगी। अब रीमा को लगा जैसे उसके पास समय ही समय है ,काटे नहीं कट रहा।आज वो पीछे देखती तो उसे आश्चर्य होता किस तरह उसने रात -दिन एक कर अपने बीस बरस गुजारे। समय मिलने पर अब अपने लिए सोचने लगी ,क्या करूँ ?तब ऐसे बैठे सोच रही थी कि करुणा की मम्मी की याद आई। उसे सब्जी नहीं लेनी थी किन्तु इस बहाने घर से बाहर आई कि वो दिखें तो बात करूं,वो सामने ही आती दिख गयीं। मैंने हो पूछ लिया, क्या अब भी किट्टी ड़ल रही है वो उत्साहित होकर बोलीं -हाँ -हाँ क्यों नहीं ,दो लोगों की और आवश्यकता है ,एक आप हो जाओगी और दूसरी मेरी एक सहेली है उससे बात कर लूँगी। मुझे करना क्या होगा ?मैंने अपने मन की घबराहट छुपाते हुए कहा। वो बोलीं -बस आप आ जाना सब वहीं समझा देंगे ,कल ही है ,आप तैयार रहना दोनों साथ चलेंगे। मैंने हाँ में गर्दन हिलाई और आ गयी।
आज उसी की तैयारी में हूँ फिर भी पता नहीं अजीब सी बेचैनी है शाम के चार बजे वो तैयार होकर जाती है ,बाहर निकलकर आकाश को देखती है ,अनजाने रस्तों पर जाते हुए पूछती जाती है कौन सा ,किसका घर है ?फिर एक घर में दोनों जा घुसीं, बड़े से कमरे में पच्चीस से तीस महिलायें ,सजी -धजी बैठी थीं। मैं तो घूंघट से बाहर ही कम निकली थी और आज घूंघट तो नहीं, सिर पर पल्ला था। उन महिलाओं में से कुछ तो अज़ीब तरह से मुस्कुरा रही थीं ,कुछ ने हंसकर स्वागत किया। वहां किसी के भी सिर पर पल्ला नहीं था ,मैं अभी धीरे से अपना पल्ला खिसकाने की सोच ही रही थी ,उनमें से एक बोली -अब यहां तो तुम्हारे सास -ससुर नहीं ,सब समान हैं ,तुम पल्ला हटा सकती हो। तभी एक दूसरी महिला जोर -जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ी। मैं समझ नहीं पाई, फिर भी मैंने कहा -अब आदत सी बन गयी है जो धीरे -धीरे जाएगी। उस पल्ले को मैंने हटाया नहीं, किन्तु समय के हाथों छोड़ दिया। सभी तंबोला खेलने लगीं किन्तु मैं किसी अ ,आ सीखने वाले बच्चे की तरह बार -बार अपनी पड़ोसन से पूछ रही थी।वो लोग कितनी पारंगत थीं ,फ़टाफ़ट नंबर मिला रही थीं और मैं उन्हें देख रही थी। मन ही मन सोच रही थी ,मैंने अपने जीवन में क्या -क्या खो दिया ?उन सबके चेहरों पर ख़ुशी और आत्मविश्वास था। जीतने पर पांच रूपये भी मिल जाते तो बेहद प्रसन्न होतीं, कई खेल भी खेले, जिनसे मैं अनजान थी। सबसे बाद में लॉटरी के निकलने पर सभी उत्साहित थीं ,सबके नबंर बोले जा रहे थे किन्तु मैं शांत बैठी थी। जब मेरा नंबर बोला गया तो अचम्भित हुयी कि मेरी लॉटरी निकली है।
मुझे समझ नहीं आया ,क्या प्रतिक्रिया दूँ ?मुस्कुराते हुए लॉटरी ले ली। कुछ तेज स्वर में कुछ धीमे स्वर में बोल रहीं थीं -आज ही आयी और लॉटरी निकल गयी ,भाग्यशाली है। लेकिन इन शब्दों से ईर्ष्या की बू आ रही थी।मणि ने आते ही प्रश्न किया -आज का पहला दिन कैसा गया ?मैं कुछ कह नहीं पाई किन्तु बेटी को प्रसन्न करने के लिए अपनी लॉटरी निकलने के विषय में बताया। वो बहुत खुश हुयी उसकी प्रसन्नता देखकर मुझे लगा ,मैं इस तरह क्यों प्रसन्न नहीं हो पा रही हूँ ,क्यों उन महिलाओं की तरह खुश नहीं हूँ ?अब तो काम की जिम्मेदारी भी नहीं। अब तो सारा आकाश मेरा है ,वो जो मुट्ठी भर आकाश था ,वो भी मेरा ही था, और बाहर का आकाश भी ,अब मेरा ही है। अगली किट्टी में थोड़ा आत्मविश्वास भी जागा ,अपने को उस वातावरण में ढ़ालने का प्रयत्न भी किया किन्तु मैं उस आकाश को समझ नहीं पा रही थी या फिर उस वातावरण में अपने को ढ़ाल नहीं पा रही थी। साल -छः माह बीत जाने पर भी मैं वो ख़ुशी -प्रसन्नता महसूस नहीं कर पा रही थी ,उनकी हँसी कभी खोखली लगती ,कभी बनावटी।अपने आपसे ही प्रश्न किया - क्या ये मेरा आकाश है ?ये भी तो सीमित है जो एक दायरे में बंध गया है। मेरा आकाश तो अनंत होगा
,इतना विशाल ,''असीमित आकाश ''जहाँ मैं अपने सपनों और कल्पनाओं की दुनिया में खो सकूँ अपने साथ औरों को भी रंग दूँ। मेरा आकाश रंगीन सपनों जैसा होगा ,जहां किसी को भी किसी से मिलने या रंगने में हिचकिचाहट न हो। जहां ख़ुशियाँ ढूढ़ने की आवश्यकता ही न पड़े ,ख़ुशियाँ तो दिल से निकलकर रंगीन कैनवास पर बिखर जायें और वो मेरा ही नहीं ,जो सपने देखता हो ,उसका भी आकाश हो। इतना विस्तृत और विशाल हो ,असीमित हो। अगले दिन वो बाजार के लिए निकल पड़ी और बहुत सारा सामान ले आयी। ये क्या मम्मी !इतना सारा सामान मणि आश्चर्य से बोली। हाँ बेटा !मेरा आकाश असीमित होगा ,जहाँ मैं अपनी कल्पनाओं के रंग भरुँगी। क्या आपको पेंटिंग आती है ?मणि बोली। हाँ ,इसका मुझे बचपन से शौक था और मैं बनाती भी थी ,शादी के बाद सब बंद हो गया। अब मैं बनाऊँगी भी और सिखाऊँगी भी ,जिससे मेरी कला मुझ तक ही सीमित न रहे ,इस तरह मेरा आकाश भी विस्तृत होगा। और वो अपना सामान रखने चल दी ,आज उसके चेहरे पर असली ख़ुशी थी।