काव्या बहुत ही प्यारी बच्ची है ,मन उसका बहुत ही कोमल है ,सबसे प्रेमपूर्ण व्यवहार करती। दुश्मनी ,लड़ाई क्या होती है ?जैसे वो जानती ही नहीं ,उसे तो सभी अपने ही नजर आते ,छल -कपट से तो उसका दूर -दूर तक वास्ता नहीं था। इतना ही नहीं ,ईश्वर भी उसे प्रेम करता ,और इसका सबूत ,काव्या का कंठ था जो इतना मधुर कि जो भी उसकी आवाज सुने, मुग्ध हो जाये।
संगीत की उसने कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की, फिर भी उसके स्वर में, सरस्वती विराजती थी ,अक़्सर रेडियो में गाने सुनती और हूबहू ऐसे ही गा देती ,जो भी उसकी आवाज सुनता प्रशंसा किये बिना ,रह नहीं पाता। उसकी प्रशंसा सुनकर उसके पिता भी कभी -कभी ,उससे भजन सुन लेते और प्रसन्न भी होते। अब तो काव्या के मन में सपने जगने लगे-'' कि वो एक बहुत बड़ी गायिका है और लोग उसकी प्रशंसा में तालियां बजा रहे हैं।
घर में अक़्सर वो गुनगुनाती रहती ,घर के कोने -कोने से उसके स्वर सुनाई पड़ते। जब दुखी या परेशान होती तब भी दुःख भरे गाने ही गुनगुनाती और अपने पसंदीदा गानों पर थिरकने भी लगती। उसके व्यवहार से ,उसका ''संगीत प्रेम'' झलकता। एक दिन उसके पिता प्रसन्न थे और अभी उसने उन्हें एक भजन भी सुनाया था। तभी वो बोली -पापा मैं ,गायिका बनना चाहती हूँ। उसकी चाहत सुनकर ,वो गंभीर हो गए और बोले -अपनी शिक्षा पर ध्यान दो ,इससे आगे कुछ मत सोचना।
उनकी बात सुनकर वो परेशान हो उठी ,किन्तु उसकी इच्छा इससे कम नहीं हुई ,जैसे आग और भड़क उठी। कुछ देर परेशान रही फिर उसने एक दिन ऐसे ही मौका देखकर ,उनसे उनके इंकार का कारण जानना चाहा। एक -दो बार तो उन्होंने उसे डपट भी दिया किन्तु उनकी सोच देख और सुनकर वो हतप्रभ रह गयी। बोले -ये गाना -बजाना हम लोगों में नहीं होता ,ये कार्य तो भांड लोग करते हैं ,लोगो को खुश करना ,उनके लिए गाना ,महफिलों में गाना ,ये सब हम लोगों में नहीं चलता और अब इसके आगे सोचना भी नहीं।
वो सोचती ,यदि ''लता मंगेशकर जी ''के पिता ने ऐसा नहीं सोचा होता । उसने अपनी दिली इच्छा को अपने तक ही सीमित रखा ,स्कूल -कॉलिज में अपना शौक पूरा कर लेती उसने कॉलिज में ही अपना प्यारा'' वाद्य यंत्र'' सितार'' भी ले लिया। पापा उसके बढ़ते शौक को देख रहे थे किन्तु इसीलिए शांत थे कि अब इसने ये विचार तो त्याग ही दिया किन्तु यहाँ वे गलत थे ,उसने अपना विचार त्यागा नहीं वरन मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए ,उसने अपने शौक को कुछ समय के लिए ,टाल दिया।
एक दिन मौसम सुहावना था ,बाहर कोयल की कूक सुनाई दे रही थी। प्रातः काल का समय था ,एकदम शांत वातावरण ,काव्या खिड़की के पास बैठी ,अपनी परीक्षा की तैयारी कर रही थी। काव्या से रुका नहीं गया और उसने अपना सितार उठाया और धुन बजाने लगी -''एक परदेसी मेरा दिल ले गया ,जाते -जाते मीठा -मीठा ग़म दे गया। '' की स्वर लहरी ने वहाँ का वातावरण मोहक बना दिया। तभी एक पड़ोसी ने घर में प्रवेश किया और बोले -इस घर में सितार कौन बजा रहा था ?
तभी अंदर से गायत्री जी आई और बोलीं -मेरी बेटी बजा रही थी ,उसे ही शौक है।
मैं तो सुनकर ही मदहोश सा हो गया ,बहुत अच्छा बजाती हैं। सुनते ही ,मैं चला आया ,उस समय पापा घर में नहीं थे। तब वो इतनी बातें कर सके।
मम्मी ने कहा -जी मैं जानती हूँ ,मेरी बेटी ,बड़ी ही गुणी है किन्तु घर तक ही सीमित है और अपने दिल को बहलाने के लिए ,कभी -कभी बजा लेती है।
जी , मैं रेडियो स्टेशन में काम करता हूँ और मैं चाहता हूँ कि इनकी प्रतिभा की जानकारी अन्य लोगों को भी मिले।
जी नहीं ,हमारे ख़ानदान में ,ये कार्य कोई नहीं करता ,बस अपने शौक के लिए ,मन बहलाने के लिए ,बजा सकते हैं ,दुनिया को तमाशा नहीं दिखाना।
वो हतप्रभ से ,मम्मी की बात सुन चुप होकर चले गए ,एक दिन ऐसे ही वो सितार बजा रही थी ,तभी उन्होंने वो आवाज रिकॉर्ड कर ली और अपने स्टेशन पर वो धुन बजाई भी।
काव्या की सभी ने प्रशंसा की और इसमें पिता को भी ,कोई बुराई नजर नहीं आई उन्होंने इसकी इजाज़त उसे दे दी। अब तो उस स्टेशन पर काव्या की स्वर लहरियों के संग, सितार की धुन भी सुनाई देने लगीं । उसके प्रेमपूर्ण व्यवहार के कारण ,सभी उसे पसंद करते , उसके जीवन में प्रेम ने भी प्रवेश किया किन्तु काव्या ने कहा -''संगीत ही मेरा' प्रेम 'है और वो आजीवन अपने संगीत के लिए समर्पित रही।