गोलियों की बौछार का सामना करते हुए, वो आगे बढ़ रहे थे। दुश्मन भी कम नहीं था ,हम उनके लोगों को मारते ,फिर भी न जाने कहाँ से और बढ़ जाते। क्या हमसे कोई खेल खेल रहे थे ?निश्चित स्थान से ,हम आगे बढ़ते जा रहे थे। मुझे एक स्थान पर आगे बढ़ने का मौक़ा मिला ,मैं अपने लोगों से ,कुछ आगे था -उधर मुझे कोई नहीं दिखा ,मैं अपने ही जोश में आगे बढ़ता चला गया। तभी न जाने कहाँ से ,एक गोली आकर मेरे काँधे में लगी ? मैं अपने स्थान से थोड़ा नीचे की तरफ ,फिसल गया। मैं अपने लिए कोई सुरक्षित स्थान ,की तलाश में था। ख़ून की बूंदों ने उन्हें मेरे छुपने का स्थान भी बतला दिया था। मेरा अपने लोंगो से सम्पर्क भी टूट गया था। बाहर से मुझे ,अपने आस -पास ही ,कुछ अस्पष्ट सी आवाजें आ रही थीं।
शायद मैं ,उन लोगों से घिर चुका था ,तभी एक गोली मेरे टाँग में लगी और मैं अपने स्थान से लुढ़कता हुआ चला जा रहा था। बस मुझे इतना स्मरण है ,जब मैं होश में आया ,मेरे आस -पास कुछ अनजान लोग थे। इनमें से मैं किसी को भी नहीं जानता था।
मैं कहाँ हूँ....... मैंने अपने माथे पर हाथ फेरते हुआ पूछा -जो काफी दुःख रहा था।
बेटा ,तुम हमारे गाँव में हो ,तुम नदी में बेहोश पड़े थे ,तब हमने तुम्हें बाहर निकाला। मैंने अपना पैर उठाना चाहा तो दर्द के कारण कराह उठा।
अभी आराम से लेटे रहो ,तुम्हारे शरीर पर ज़ख्म हैं ,शायद पैर की हड्डी भी टूटी है। ये सब कैसे हुआ ?तुम कौन हो ?कहाँ से हो ?
मैंने अपने मस्तिष्क पर जोर डाला ,किन्तु कुछ भी स्मरण नहीं रहा। ऐसा मुझे ,पूर्वा ने बताया। मैं अपना अस्तित्व भूल चुका था ,कौन हूँ ,कहाँ से आया ?अनेक प्रश्न उन लोगों के साथ मेरे मन में भी उभर कर आये। यहाँ तक, कि मुझे अपना नाम भी स्मरण नहीं था। दो -तीन माह तक मैं बिस्तर पर ही रहा ,उन लोगों ने बहुत सेवा की। मेरी कद -काठी देखकर ,बोले -कहीं तुम फ़ौजी तो नहीं ,जब मुझे कुछ भी स्मरण ही नहीं था ,तो क्या जबाब देता ?
अब मैं वहीं रहने लगा ,उनके खेतों में ,उनका हाथ बंटाता ,उनके घर के सदस्य की तरह ही हो गया था। उन बूढ़े -बूढी के लिए तो' बुढ़ापे की लाठी हो गया ''वैसे वे लोग ,अभी इतने बूढ़े नहीं हुए थे ,किन्तु मैंने अपने अलावा उस घर में ,कोई अन्य सदस्य न देखा। अब तो किसी से भी मेरा परिचय कराते तो अपने बेटे के रूप में ,पूर्वा अक़्सर मेरे -आगे -पीछे मंडराती रहती ,अब तो वहीं रहते ,मुझे छह माह हो गए।
अब मैं पूर्णतः स्वस्थ था ,एक दिन पूर्वा के पिता ने आकर कहा -इसे अपने घर की कोई जानकारी नहीं ,न ही इसे , अपना नाम ही स्मरण है ,मैं अपनी बेटी पूर्वा के लिए ,लड़का भी ढूँढ रहा हूँ ,पूर्वा भी इसे पसंद करती है। दोनों की घर -गृहस्थी बस जाएगी ,और हमें चाहिए भी क्या ?यहीं हमारे पास भी रहेंगे ,हमारी आँखों के सामने ही।
गुलशन कुछ देर ,हुक्का गुड़गुड़ाते हुए कुछ सोचता रहा ,फिर बोला -पता नहीं कौन है ,क्या जात है ?कल को इसकी याददाश्त आ गयी ,तब क्या होगा ? पता नहीं पीछे ,इसका परिवार है भी नहीं।
पूर्वा का पिता भी ,कुछ सोच में आ गया किन्तु तभी बोला -यदि इसकी याददाश्त वापिस भी आ गयी तो इसे बता देंगे ,पूर्वा इसकी पत्नी है और इसे अपने संग ले जाये।
नहीं माना तो !उन्होंने अपना अंदेशा जतलाया।
जब चार लोग कहेंगे ,तो मान ही जायेगा।
अब तो सभी बातें सोच -समझकर ,हरिया का पूर्वा से विवाह हो गया। जी हाँ !हरिया हमारे फ़ौजी बाबू !जिनका किसी को नाम पता कुछ भी मालूम नहीं, वो अब इसी नाम से ,उस गांव में ,अपनी पूर्वा के संग रहने लगे।
ये यादें ही तो होती हैं ,जो हमें अपनों से जोड़े रखती हैं ,अपनी पहचान दिलाती हैं ,ये यादें ही न रहे तो ,इक इंसान की पहचान क्या है ? न ही देश ,न ही जात -बिरादरी का पता ,उसे अपनी पहचान भी नहीं ,जहाँ भी बस जाये वहीं बसेरा ! इन.... यादों ,स्मृतियों द्वारा ही हमें अपनी पहचान मिलती है ,ये न हों तो ,इंसान इंसानों की ही भीड़ में न जाने कहाँ खो जाये ? कुछ अपने भी बन सकते हैं ,कुछ दुश्मन भी। हरिया की स्मृतियों की भी एक हद थी ,जो वो पार कर चुका था ,अब तो उसके जीवन में ''बेहद ''प्यार करने वाली पूर्वा थी।
कुछ माह पश्चात , उसके जीवन में ,एक नन्हा सा राजकुमार भी आ गया। उसकी ज़िंदगी के दायरे तय होते जा रहे थे ,लोगों को अब पूर्ण विश्वास था कि अब इसकी याददाश्त कभी नहीं लौटेगी। जीवन अपने ढर्रे पर चल रहा था। एक दिन ,वो खेतों से आ रहा था ,तेज बारिश पड़ने लगी ,दूर -दूर तक कुछ दिखाई नहीं दे रहा था कि कुछ देर ,वहाँ खड़े हो सके। वो आगे बढ़ता ही जा रहा था।बारिश के कारण , मिटटी से कीचड़ भी काफी हो गया था ,कई जगहों पर चिकनी मिटटी भी थी ,उससे फ़िसलन बढ़ गयी थी।उसने अपने जूते भी हाथ में लिए थे। एक जगह उसे ,एक टीन की छत का सा घर दिखा वो उस ओर बढ़ गया। जैसे ही उसने नजदीक पहुंचकर अपना बड़ा कदम बढ़ाया वो फिसलता चला गया और उसका सिर एक पुरानी ,खंडहर जैसी दीवार में जाकर लगा।
ये इतनी जोर से लगा कि उसका सारा सर हिल गया और वो वहीं बेहोश हो गया। न जाने कितनी देर तक पड़ा रहा ?जब आँख खुली तो कुछ अनजान चेहरे उसके आस -पास खड़े थे।
उसने पूछा -मैं कहाँ.... हूँ ?
उनमें से एक बोला -अपने घर में ,और कहाँ होंगे ?उसने नजरें उठाकर एक बार फिर से उन सबको देखा ,इनमें से कोई भी तो अपना नहीं....
तभी एक महिला आई और बोली -अब कैसे हो जी ?तुम इकरामुद्दीन के कोठरी के बाहर बेहोश पड़े थे। क्या हुआ था ?
आख़िर कौन हैं ,ये लोग..... ! और मैं इनके यहाँ कैसे ?मैं तो दुश्मनों से घिर गया था ,मेरे गोली भी लगी थी ,उसने अपने हाथ -पैरों को हिलाया। सब सही से काम कर रहे थे। क्या मैं जिन्दा हूँ या मर गया और दूसरे जहाँ में आ गया ?
तभी एक बच्चा ,मेरे समीप दौड़ता हुआ आया और मुझसे लिपट गया। पापा...
क्या मैं बाप बन गया ?मेरा विवाह कब हुआ ?
कुछ पारखी नजरों ने ताड़ा, कि मैं उन्हें पहचान नहीं रहा हूँ। तब उस गुलशन नाम के व्यक्ति ने उन लोगों से कहा -अभी इसे आराम करने दो ,रात भर सोयेगा ,पानी में भी भीगा है ,चाय और दवाई लेगा तो स्वस्थ हो जायेगा। उस महिला और बच्चे को भी भेज दिया ,मुझे पीने को कुछ गर्म -गर्म काढ़ा दिया और सोने के लिए कहा।
जब मैं उठा ,शाम का समय था ,वैसे बरसात के मौसम में ,दिन में भी शाम ही लगती है। किन्तु मैंने वहां टँगी एक घड़ी में समय देखा। तभी दरवाजा खुला और वही व्यक्ति मेरे कमरे में आया और बोला -तुम कौन हो ?
क्या..... ?
तुम समझे नहीं , मैं पूछ रहा हूँ ,कौन हो तुम ?
इन लोगों को मैं जानता भी नहीं ,दुश्मन हैं या दोस्त !एकाएक अपनी पहचान बताना सही नहीं होगा ,यही सोचकर ,भीड़ में जो मैंने अपना नाम सुना ,वही बोल दिया -हरिया...
वो लगभग चीखते हुए से ,किन्तु आवाज कमरे से बाहर न जाये ,इस बात का उसने पूर्णतः ख़्याल रखा। जो नाम हमने दिया वो नहीं ,जो तुम्हारा नाम पहचान तुम्हारे माता -पिता ने दी।
मैं हैरत से उसे देख रहा था ,
हाँ... मैं जान गया हूँ ,तुम्हारी याददाश्त वापिस आ गयी है ,हमने भी इतने वर्षों से तुम्हारे माता -पिता का फ़र्ज निभाया है ,भला अपने बच्चे को न समझ सकेंगे।
कितने बरस हो गए.... ?
यही कोई चार -पांच बरस.......
मैं कहाँ हूँ ?
जब उन्होंने बताया , दुश्मन देश के किसी छोटे से गाँव में ,मैंने उन्हें विश्वास में लेकर अपना परिचय दिया किन्तु अब मेरे लिए दुश्मन देश में रहना ,सही नहीं था। यहां मेरा ,एक छोटा सा परिवार भी बस चुका था। उन्हें संग ले जाने का अर्थ है -चर्चा होना और दुश्मनों को ख़बर होना। मुझे अपने देश वापिस आना था ,जहाँ मेरे अपने माता -पिता थे जो इतने वर्षों से मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। किसी को भी बिना कुछ बताये जाना था। उनकी नजर में तो मैं हरिया था। वही उनके लिए सही था।
लगभग छह माह पश्चात ,मुझे मौका मिल ही गया और मैं अपने बेटे के संग अपने देश की सीमा में खड़ा था। वो तो बेचारी सोती ही रह गयी। अपने घर आकर देखा ,माता -पिता नहीं रहे ,कुछ बुढ़ापा ,कुछ अकेले बेटे को खोने का ग़म ,हम फ़ौजियों को भी न जाने कितने अरमानों ,कितने रिश्तों की क़ुरबानी देनी पड़ जाती है ?यहां माता -पिता नहीं रहे , वहाँ अपना अनचाहा प्यार और मेरे रक्षक माता -पिता छोड़ आया। उस देश और उन चार वर्षों की निशानी ,मेरा बेटा निहाल मेरे संग है। इन वर्षों ने मेरी ज़िंदगी कितनी बदलकर रख दी ?आत्मग्लानि में मैंने विवाह नहीं किया ,कुछ लोग कहते -पता नहीं ,किसका बच्चा है ?शायद वहीं कहीं ब्याह कर लिया होगा। मैंने सब सुना ,सब सहा।
निहाल कभी अपनी माँ के विषय में पूछता ,तब मैं कह देता -दूर.... जहाँ में !और हाथ की अंगुली स्वतः ही ऊपर उठ जाती।