मानिनी कॉलिज में आती है ,आज तरन्नुम ने आने में देर कर दी। मानिनी और तरन्नुम दोनों अच्छी दोस्त हैं। दोनों ही साथ रहती हैं , एक ही कक्षा में ,साथ ही बैठती हैं। जिस दिन एक भ नहीं आती ,दूसरी का मन नहीं लगता।
कुछ समय पश्चात ही तरन्नुम आती है ,उसके चेहरे पर कुछ परेशानी नजर आती है। मानिनी पूछती है -आज तू क्यों परेशान है ?तरन्नुम बोली -कुछ नहीं यार... बस ऐसे ही। ऐसे ही क्या ?मानिनी नहीं मानी और पुनः पूछ बैठी। अब तुझे क्या बताऊँ ?हमारे ख़िलाफ़ साज़िशें रची जा रही हैं ,हमारे मज़हब को कमजोर किया जा रहा है ,हमारी धार्मिक चीजों को महत्व नहीं दिया जा रहा ,ये तो हम पर अत्याचार है। हम कतई सहन नहीं करेंगे तरन्नुम आवेश में आकर बोली। मानिनी कुछ नहीं समझ पाई और बोली - केेसा अत्याचार ?कुछ समझाएगी भी...... तभी कक्षा से बाहर कुछ शोर -शराबा होता है ,तरन्नुम बोली -चल तुझे मैं आकर समझाती हूँ ,तुझे तो देश दुनिया की कुछ खबर रहती भी है कि नहीं ,बाहर जाते हुए -आकर बताऊँगी ,मैं अभी अपनी कौम के झुण्ड में जाती हूँ। मानिनी भी उसके पीछे -पीछे बाहर तक आती है ,तब तक तरन्नुम सीढ़ियों से नीचे उतर जाती है।
नीचे की तरफ झाँकते हुए मानिनी मन ही मन बुदबुदाती है ,पता नहीं ,ये लोग ऐसा क्यों कर रही हैं ?सब कुछ तो अच्छा चल रहा था ,अब ये कैसी जुलूसबाज़ी होने लगी ?
ये शब्द पास खड़ी दिव्या ने सुन लिए बोली -क्या तुम्हें नहीं पता कि ये लोग' हिज़ाब 'के लिए लड़ रही हैं। मानिनी ने असहमति जताई और बोली -इसमें लड़ाई वाली बात ही क्या है ?दिव्या बोली -ये लोग कह रही हैं- कि ''हिज़ाब ''पहनकर ही हमें कक्षा में आना है, ये हमारे धर्म से जुड़ा है , हमारा धार्मिक पहनावा है। पता नहीं कहाँ रहती है ?कहते हुए दिव्या चली गयी।
मानिनी सोचने लगी -शायद आज पापा भी इसी विषय में बातें कर रहे थे ,मैंने ध्यान ही नहीं दिया।
तभी मानिनी भी अपनी कक्षा छोड़कर ''पुस्तकालय ''की ओर बढ़ जाती है और न जाने कितनी पुस्तकें खंगालती है ? किन्तु उसे कोई जबाब नहीं मिला।
लगभग दो घंटे पश्चात ,तरन्नुम आती है ,धूप और गर्मी से उसका चेहरा लाल हुआ था ,आते ही अपनी बोतल में से पानी पीती है। मानिनी बोली - तू इतनी परेशान क्यों है ?
क्या तुझे अभी तक पता नहीं चला ?हम अपने हक़ की लड़ाई लड़ रही हैं ,तरन्नुम तीव्र स्वर में बोली।
कौन सा अधिकार ,कौन सा हक़ ?तू तो स्वयं ही इस बुर्खे से निज़ाद पाना चाहती थी।कॉलिज में आते ही सबसे पहले इसे उतारकर रखती। गर्मी में भुनभुनाती हुई कहती -कितने कपड़े पहनने पड़ते हैं ?ऊपर से ये बुरखा.... मानिनी बोली -अब कुछ दिनों में ऐसा क्या हो गया ?जो तुझे परेशान कर रहा है।
ये हमारा धार्मिक कपड़ा है ,इसे हमें पहनने का हक़ है ,तरन्नुम थोड़ा शांत होते हुए बोली।
पहनो तो ,किसने रोका है ?किन्तु मै अभी ''पुस्तकालय ''में गयी, और कई किताबें पढ़ीं ,उनमें कहीं भी ''हिज़ाब'' को तुम्हारे मज़हब से जुड़ा नहीं बताया। कहूंगी ,तो तुम बुरा मान जाओगी ,'' ये तो किसी धर्म से नहीं वरन सोच से जुड़ा है।'' तुम्हारे मज़हब में महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से नहीं वरन भोग्या की दृष्टि से देखा जाता है ,बुरखे में कैद करके अपनी धरोहर मानते हैं। ये तो शुक्र मनाओ ,अब तुम लोगो को पढ़ने भेजा जाने लगा ,वरना तुम लोग एक वस्तु के सिवा उन मर्दों के लिए कुछ नहीं। अब तुम पढ़ रही हो स्नातक कर रही हो ,फिर तुम इस पिंजरे में पुनः कैद होना क्यों चाहती हो ?जब उड़ान भरने का समय आया तो इन झमेलों में पड़ रही हो।
ये कानून जो बनाये जा रहे हैं ,तुम लोगो की उन्नति के लिए ही तो बन रहे हैं। ताकि तुम बेबस ,बेसहारा वाली ज़िंदगी से छुटकारा पा सको। तीन तलाक़ समाप्त किया ,क्यों ?ताकि एक से दूसरे ,दूसरे से तीसरे ,न जाने कितने निक़ाह हो जाते हैं ?और इन तीन शब्दों से ही ज़िंदगी कहीं की नहीं रह जाती। ये मर्द लोग तो अपनी हवस की खातिर ,तीन शब्द बोलकर इत्मीनान की ज़िंदगी बसर करते हैं , किन्तु उस लड़की पर क्या बीतती है ?जो चौदह बरस की माँ बन जाती है ,बीस बरस की तीन -चार बच्चों की माँ बन जाती और जब उसका बदन बेडौल हो जाता है , उसके पश्चात वो तलाक की तलवार से गुजरती,'' जिसकी बारीक़ धार पर उसकी सम्पूर्ण ज़िंदगी लहू -लुहान होती।'' जिस घर में इतने बरस दिए, आज वो उसका नहीं। दूसरा फिर तीसरा घर बसाया न जाने ,कितने घर बसे ?किन्तु कहने को अपना एक भी नहीं। बेबस और तंगहाली की हालत में अधेड़ उम्र और बुढ़ापा कटता है। न जाने कितने बच्चे गरीबी में पलते हैं ?पढ़ नहीं पाते ,पता नहीं कौन उनका किस तरह लाभ उठाता है ?क्योकि पढ़ते तो है नहीं ,सही गलत का भी नहीं पता रहता। जिसने जैसा समझाया -समझ गए। अब तुम पढ़ने के पश्चात भी ,ऐसी बातें करती हो ,मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। जो ये भी न समझ सको तुम्हारे लिए क्या सही है ,क्या गलत ?
मानिनी की बातें ,सुनते -सुनते तरन्नुम की आँखें भर आईं ,बोली -मैं क्या अपनी मर्जी से आई हूँ ,मेरे अब्बा पर तो दबाब बनाया गया, कि ये जुलूस पूरा ज़ोर पकड़ना चाहिए। अपने घर से एक नहीं दो -दो को भेजो !हम उनका साथ नहीं देते तो ,अपनी कौम के'' गद्दार ''कहलाते, वरना मेरे अब्बा तो ''अमन पसंद ''हैं। हमें न ही क़ाफ़िरों का साथ देना है और न ही उनकी बातों पर ध्यान देना है। अब तुम ही बताओ !हम न चाहते हुए भी ,इस दलदल में फँस रहे हैं।
बस इतना करो ,ये शिक्षा का मंदिर है ,कुछ लोग इसमें अपनी राजनीति कर रहे हैं ,उनका मोहरा मत बनो ,अपने धर्म को समझो ,उसका सम्मान करो किन्तु अनुचित का साथ मत दो। जहां से ज्ञान प्राप्त किया है उस ज्ञान का अपने इल्म का तिरस्कार मत करो। मैं ज्यादा पचड़ों में नहीं पड़ना चाहती किन्तु तुम मेरी दोस्त हो ,तुम्हें समझाना मेरा फ़र्ज था ,बाक़ी तुम स्वयं ही समझदार हो ,कहकर मानिनी ने अपने खाने का डिब्बा उसके आगे कर दिया और बोली -तुम्हें भूख लगी होगी ,खाना खा लो।
तरन्नुम उसका चेहरा देख रही थी ,कि इसने सारी बातों को कितनी सरलता से कह दिया। जो हम जी रहे हैं ,वो आज तक न ही समझ पाए ,और इसने समझा भी दिया। ता उम्र पीढ़ी दर पीढ़ी अपना दर्द झेलते रहे ,यही अपना नसीब समझा ,कभी इस ''हिज़ाब ''की कालिख़ से बाहर निकलने की कोशिश ही नहीं की ,क्योंकि हमें अपने बारे में इतना सोचने ही नहीं दिया जाता ,उससे पहले ही हमारे पँख काट डाले जाते हैं और वही हमारी जिंदगी बन जाती है।