पल -पल मरता है ,इंसान ! जीने की तमन्ना में !
टूटता है ,बिखरता है, जिन्दा रहने की चाह में !
खो देता है ,अपनों का साथ ,जीता है स्वांसों में !
स्वांसों का ही खेल है , जिन्दा रहने की आस में !
कुछ लोग जीते हैं , ढूंढते हैं ,उस मौत के रहस्य को ,
पल -पल उसके संग खड़ी मौत ! उसकी आस में !
देता है मात ,उस मौत को ,जो खड़ी है ,उसकी तलाश में !
रोज मर रहा इंसान , अनजानी ख़ुशियों की तलाश में !
आज मुझे ,अपना ये कार्य पूर्ण करना है ,जीना है अपनों के लिए ,अपने ही वफादार नहीं रहे ,पिता छोड़कर चले गये ,शायद वे खुशियों को ढूंढने गए हैं ,जो उन्हें जीते जी न मिल सकीं। मेरे सर पर तो उत्तरदायित्वों का कितना बड़ा बोझा छोड़ ,गए ? मुझे तो कुछ अच्छे से जीना था ,इन जीवन का भरपूर आनंद लेना था किन्तु मेरा बचपन तो उन उत्तरदायित्वों के तले दबकर रह गया। ऐसा मैं ही नहीं ,न जाने कितने मासूम अपने बचपन को अपनी जिम्मेदारियों के तले कुचल देते हैं। अभी तो मैं जीवन से परिचित भी नहीं हूँ ,फिर भी उस जीवन से मुझे लड़ना है ,उस जीवन के संग जीना है कैसी विडंबना है ?पहले कमाई की चिंता ,इस जीवन को जीने के लिए ,मैं पल -पल मौत के साये से जूझ रहा हूँ ताकि ,इन जिम्मेदारियों को पूर्ण कर, सुखपूर्वक जीवन जी सकूँ। उस सुख की तलाश में ,बहन का विवाह किया ,थोड़ी सुकून की साँस ली ,माँ का इलाज भी कराया वरना वो तो पिता के जाने के पश्चात ,निढाल ही हो गयीं थीं ,उन्होंने तो जैसे मौत को गले लगाने का ही सोच लिया था किन्तु मैंने उन्हें हिम्मत दी ,ढाढ़स बढ़ाया ,तब उनमें जीने की चाह जागी ,जी हाँ ,ये हिम्मत साहस ही ,तो हममें जीने की ललक फिर पैदा करते हैं। जिंदगी से लड़ने का जज्बा बढ़ाते हैं।
देखा जाये तो ,ये कार्य मेरी माँ को मेरे लिए करना चाहिए था ,किन्तु जब परिस्थितियों ने ही मुझे ये उत्तरदायित्व दिया है ,तब मैं समय से पहले ही ,अपने को परिपक़्व और जिम्मेदार समझने लगा। इंसान हाथ -पांव तो बहुत मारता है ,क्यों ?क्योंकि उसमें जीने की ललक है ,मैदान आसानी से छोड़ना नहीं चाहता। एक उम्र पर माँ ने मेरे लिए भी ,जीवनसंगिनी ढूंढ़ ली ,जिसके संग मैं अपने सुख -दुःख बाँट संकू किन्तु वो तो हिसाब की बिल्कुल ही कच्ची निकली ,वो सुख तो चाहती थी किन्तु दुःख के क्षणों में मुझे अकेला छोड़ देती थी। अधिकार जानती थी, किन्तु कर्त्तव्य का पाठ शायद उसकी किताब में ही नहीं था। कभी -कभी उसके व्यवहार से निराशा होती और मैं इस जीवन से पूछता -तूने ,सिर्फ इम्तिहानों के सिवा क्या दिया ?
एक नया इम्तिहान अब मुझे और देना था ,जब कमाने के लिए बाहर निकला और ''कोरोना ''ने मुझे अपनी चपेट में ले लिया। अब तन से भी कमजोर होने लगा तब मन का साहस भी क्या कर लेता ?लड़ते -लड़ते थ कने लगा था ,जीना भी किसके लिए था ?अपने भी अपने नजर नहीं आते थे ,अब घर का खर्चा भी कैसे चलेगा ?यही चिंता सताती रहती थी। ज़िंदगी अब सुहाती नहीं ,मौत की गोद में ही सुकून नजर आ रहा था। वो ही अपनी नजर आ रही थी। पत्नी -बच्चे कोई नहीं सुहाता ,डॉक्टर ने दवाई दी ,मैं अलग पड़ा रहता ,न जाने कब मौत ने अपने आगोश में ले लिया ? मैं अपने को उन परेशानियों से मुक्त कर चुका था ,अपने को बहुत हल्का महसूस कर रहा था। स्वतंत्र आकाश में इधर -उधर घूम रहा था ,अचानक कहीं से आवाज सुनाई दी - तुम यहाँ कैसे ? तुम अपनी जिम्मेदारियों से भागकर क्यों आ गए ?मैंने इधर -उधर देखा ,कोई नजर नहीं आया। मैं ऊँची -ऊँची इमारतों के बीच ,घूम रहा था ,तभी कुछ लोग आते दिखलाई दिए उनमे से एक ने कहा -अभी तुम्हारा समय नहीं आया ,अभी तुम्हारे परिवार को तुम्हारी आवश्यकता है।
नहीं ,मैं उस दुनिया में नहीं जाना चाहता ,मैं उस दर्द परेशानी को झेल नहीं सकता ,मैं अब मौत से जीत नहीं सकता।
नहीं ,माना कि मौत पर किसी का वश नहीं किन्तु तुम्हें उस मौत पर विजय पानी है ,तुम्हें साहस करना होगा ,कहते हुए ,जैसे किसी ने मेरे सर पर हाथ रखा हो। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था और मेरी आँख खुल गयीं। शरीर में जो दर्द परेशानी थी ,जैसे किसी ने खींच ली हो ,ऐसा लग रहा था ,जैसे कोई बिमारी थी ही नहीं ,मैंने अपने आपको छुआ ,जिस जगह से मैं आया था वहाँ बड़ा ही सुकून मिल रहा था। अब मन में मौत का कोई भय नहीं था ,उसको तो मैं जीत चुका था। अब जीने की नई उमंग और रौशनी मेरे सामने थी।