पार्वती जी ,दुखी परेशान ,अपने कमरे में आती हैं और अपने पलंग पर बैठकर ,गहरी स्वांस भरती हैं और अपनी आँखें बंद कर लेती हैं। मैं कितना भी अच्छा सोच लूँ या कर लूँ ?किन्तु इसे अपना नहीं बना सकती ,ये 'दरार' कभी नहीं भर सकती ,इन विचारों से ,उनकी निराशा ही झलक रही थी।
वो करें भी तो क्या ?वो अपने आपको ,अपने विचारों को ,अपने व्यवहार को तो बदल सकती हैं किन्तु दूसरे की सोच ,दूसरे के व्यवहार को जबरदस्ती बदलने पर मजबूर तो नहीं कर सकतीं। अपने प्यार भरे व्यवहार से इस रिश्ते को बनाये रखने का भरसक प्रयास किया किन्तु जब दूसरा ही इस रिश्ते में कोई दिलचस्पी लेना नहीं चाहता ,तब वो ही क्या कर सकती हैं ?
ऐ....... यहाँ क्या कर रही है ?चल अपने काम में लग जा ,सारा दिन इधर -उधर मटकती फिरती है।
मम्मी जी मैंने खाना भी बना लिया ,घर की साफ -सफाई भी कर दी।
कर दी तो क्या? किसी पर एहसान कर दिया ,दुनिया की बहुएँ काम करती हैं ,तूने कौन सा अजूबा कर दिया ?चल जाकर कपड़े उतार ला और स्त्री कर दे।
मम्मी जी ,मैं अभी तो काम से निपटी हूँ ,थोड़ा आराम कर लूँ।
रात भर क्या किया था ?रात किसलिए होती है ?रात को आराम नहीं किया ,सारा दिन महारानी की तरह पड़ी रहती है। जा मेरे सर में तेल लगा। अबकी बार जब मायके गयी तो अपनी मम्मी से अपने सास के कठोर व्यवहार की शिकायत की किन्तु मम्मी बोलीं -सास तो ऐसी ही होतीं हैं ,तेरी दादी क्या कम थीं ?मैंने भी उनके बहुत ताने सुने हैं क्रोध झेला है किन्तु जब उनका पोता हुआ तो बदल गयीं थीं। तू भी शीघ्र ही माँ बन जाएगी तो बच्चे का मुँह देखकर ,शायद उनका गुस्सा भी बदल जाये।
मुझे तो नहीं लगता ,जो इंसान ऐसा है ,जिसमें हमदर्दी ,सहानुभूति जैसी चीज हो ही नहीं ,वो क्या बदलेगा ?पार्वती अपनी मम्मी से कहती है -आप देखना !जब मेरी बहु आयेगी न ,मैं कभी उसको इस तरह नहीं पुकारूंगी ,जैसे मेरी सास कहती है -ऐ..... अरे ये कोई बात करने का तरीक़ा है। ऐसा लगता है -कि वो बहु को नहीं किसी कामवाली को पुकार रहीं हैं।
क्या ,ये सब देखकर दामाद जी कुछ नहीं कहते ?
वो तो अपनी माँ के सामने मुँह ही नहीं खोलते ,मैं भी नहीं चाहती कि मेरे कारण माँ -बेटे में किसी भी तरह का मन -मुटाव हो ,किन्तु मेरी भी तो कुछ इज्जत है कि नहीं ,मैं एक दिन बहुत बिमार हो गयी किन्तु मुझे दिखाने के लिए जब तक तैयार नहीं हुए ,जब तक उनकी मम्मी ने कहा नहीं। अब ये भी कोई बात हुई।पार्वती ने अपनी माँ से बहुत कुछ बताया भी और बहुत कुछ नहीं भी बताया किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। वे अपने किस्से सुनाने लगतीं।
माँ से कहकर अपने मन की घुटन को बाहर कर, मैं फिर से अपनी ससुराल आई और नए सिरे से जीवन जीने का मनसूबा बनाया किन्तु मेरी सास में कोई बदलाव नहीं आया। बच्चे भी हुए ,किन्तु उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ जैसा कि मेरी मम्मी ने कहा था मेरी जिम्मेदारियां और बढ़ गयीं।बस इसी इंतजार में थी ,जब मेरी बहु आएगी तब मम्मीजी को मैं बताउंगी -''कि बहुओं का भी कुछ मान सम्मान होता है। कैसे उन्हें समझा जाता है ?बात -बात पर ताने और डांटा नहीं जाता। बहु के आने तक मम्मीजी तो नहीं रहीं किन्तु मैंने बड़े प्रेम से अपनी बहु को ,अपने घर में प्रवेश करवाया। मैं उसकी सास नहीं ,माँ बनना चाहती थी।
बहु आई, घर खुशियों से भर गया ,नई सोच ,नई उमंगों संग आगे की ज़िंदगी की शुरुआत करना चाहती थी। आधुनिक सास बनकर उसे सरप्राइज देकर अचम्भित कर देना चाहती थी। बहु के लिए पहले ही उसके हनीमून के टिकट भी मंगवा दिए। जब उसे खुश होकर मैंने बताया तो वो खुश नहीं हुई और बोली -आपने ऐसे ही हमसे बिना पूछे कैसे कार्यक्रम बना दिया ?
नहीं ,मैंने अपने बेटे से पूछ लिया था मैंने जबाब दिया। उसने मेरे बेटे को घूरा और अंदर बात करने के लिए ले गयी। मैं अपने को ,पहली ही कोशिश में ठगा सा महसूस कर रही थी। मेरे समय तो मेरी सास ने आते ही काम पर लगा दिया था घूमने का तो जिक्र भी नहीं हुआ था। एक आध रिश्तेदार ने नई बहु को अपने घर खाने पर बुला लिया था। अपने मन को समझाया ,उन दोनों में मैं ,कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहती थी। बहु अपनी इच्छानुसार ,सभी जगह घूमी और आकर सो जाती। उसे घर में आये हुए ,एक माह हो गया। तब मैंने कहा -बहु आज रसोई की रस्म कर लेते हैं।उसने कोई जबाब नहीं दिया मैं एक माह से खाना बना रही थी चाहती थी बहु भी अपनी जिम्मेदारियां संभाले। किन्तु वो तो जैसे तैयार ही नहीं थी। नौ बजे उठना ,सहेलियों से फोन पर बातें करना। शाम को बेटे के साथ घूमने जाना। तब एक दिन मैंने प्यार से समझाया भी। तब मुँह बनाते हुए गयी और बोली भी नहीं।
मैं सोचती रही, धीरे -धीरे अपनी जिम्म्मेदारियाँ समझेगी किन्तु जैसे ही मैं ,उसे समझाना चाहती ,जिम्मेदारियों का एहसास दिलाना चाहती ,वो मुझसे और दूर होती जाती। मेरा सास -बहु का , प्यार से रहने का सपना ,सपना ही नजर आ रहा था। उसने तो जैसे मुझे ही खाना बनाने वाली समझ लिया था। तब मैंने अपने बेटे से बात कर ,खाना बनाने वाली भी रख ली ,साफ -सफाइवाली ,पहले से ही थी। यही सारा काम मैं अकेली करती थी।
आज बहु की कुछ सहेलियाँ उससे मिलने आईं ,मैं बाहर ही बैठी थी ,बहु ने मेरा परिचय तक नहीं कराया और उन्हें अंदर ले गयी। क्या बताऊं ?यार...... मैं तो यहाँ आकर फंस गयी ,इस बुढ़िया की नजर सारा दिन मुझ पर ही रहती है। काम कर -करके मैं तो थक गयी ,इन बूढ़े -बूढी की सेवा करते रहो ! मैं तो इस इंतजार में हूँ ,मेरा ये बच्चा हो जाये और मैं नौकरी पर चली जाऊँगी। कम से कम ये ख़ाली बैठे उस बच्चे को पालेंगे। इनका बुढ़ापा भी कट जायेगा। ये सुनकर ,ट्रे में चाय लाती हुई पार्वती जी ने सुन लीं। बहु की सहेलियों को चाय देकर तो चली गयीं किन्तु उनका मन बहु के उन शब्दों से बहुत ही आहत हुआ।
वो अब समझ चुकी थीं ,सास -बहु की जो जन्मजात रंजिश है ,जो ''दरार ''बनी हुई है ,उसे वो चाहकर भी नहीं भर सकेंगी। जिसको जो चीज मिल जाती है ,उसकी क़द्र नहीं करता। कहीं सास तेज होती थी ,तो कहीं बहु ,उस रिश्ते की क़दर नहीं करती है। बदलाव और सहयोग तो दोनों ही तरफ से ही होता है कोई एक ही आदमी कब तक उस रिश्ते को सम्भालने का प्रयास करता रहेगा ? पढ़ी -लिखी बहु होने के पश्चात भी, शिक्षा उसकी सोच को नहीं बदल सकी ,सास -ससुर के प्रति ऐसे विचार...... हमारा प्यार अपनापन भी उसके माता -पिता का दर्जा न ले सका।