मेरी कार धीरे धीरे सुनसगांव में प्रवेश करती है और मंदिर के सामने पत्थर वाले रोड से गुजरती है।सामने बाबू सोन जी मामा का मकान दिखता है हमेशा मुस्कराने वाला मामा और पतली आवाज में जोर से बोलने वाली जयवंता मामी आज इस दुनिया में नहीं है।सामने ही मुंछ वाले होम गार्ड की पैंट पहने रमेश मामा भी इस दुनिया में नहीं रहे।मनु मामा का मकान भी अभी गुजरा ।मैंने चावड़ी के सामने चौक में गाड़ी पार्क की।अनायास ही बलवंत मांगो मामा,पुंडलिक नेहते याद आ गए।सब कुछ सुना सुना सा लग रहा है।नई पीढ़ी के लोग मोबाइल और टी वी के कारण घरों में कैद हो गए है।मेरे कदम हवेली की और बढ़ चले।अब ये हवेली शायद अरविंद मामा के हिस्से में आयी है। आधा हिस्सा स्वर्गीय यशवंत मामा के हिस्से में आया।अंदर प्रवेश कर मै ओटले पर बैठ ध्यान से चारों तरफ देखते देखते फिर अतीत की दुनियां में चला गया।अरविंद मामा अक्सर बाइक से ही औरंगाबाद से आ जाते थे। पी डब्ल्यू डी में इंजीनियर रहे मामा बहुत ही चुस्ती फुर्ती के साथ आते ही पूरे मुहल्ले का चक्कर लगा सबसे मिल आते।सामान्य व्यक्ति की तरह नीचे ही बैठ लोगों से
बातचीत करते थे।कोई घमंड नहीं है उन्हें।
मुझे जहां तक याद आता है कि किसी एक दिन हवेली के सारे बच्चों के बाल छोटे छोटे हो जाते।ये सब रामा हज्जाम (नाई) की देन रहती थी।एक छोटी सी पेटी में सारे औजार भर कर वो घर घर जाकर दुकान लगा देते थे। चंद्रा मामी हमेशा आजी के लिए मददगार रही है।
नानी अक्सर खुद जाकर मावा बनवाकर लाती थी और फिर शुद्ध मावे के पेडे मुंह का स्वाद दोगुना मीठा कर देते। गांव में अक्का ताई और पेमा मामा की बेटी वंदू दोनों कम उम्र में ही स्वादिष्ट खाना बना लेती थी।जगु मामा (जगत राव)सबसे सीधे सादे और प्रेमल स्वभाव वाले मामा थे।कमल मामी बहुत बातूनी थी, जबकि मामा कम ही बोलते थे।उनके बेटे रघु व रामा दादा पढ़ने में लगे रहते।भागवत भाई हमारे साथ खेलने आ जाते थे। शकु ताई व छाया ताई भी हंसमुख और मिलनसार रही। अलीराजपुर से भुसावल आते ही सबसे पहले हम यशवंत मामा के यहां मिलने जाते थे।यशवंत मामा से मुझे डर लगता था ,उनकी आवाज से,लेकिन थे वे पूरे दिलदार। शांता मामी की बात तो निराली थी हंसते बोलते फटाफट रसोई निपटा लेती। शालिनी ताई(बड़ी अक्कl) पढ़ने में होशियार, सिधीसादी,काम में पारंगत रही है,वो और अवि ,अनिल,दीपू, पमु तथा छोटु भाई सभी की मेहमानवाजी काबिले तारीफ रहती थी।सभी तुरंत मदद के लिए तैयार रहते थे।
तभी "अरुण अरुण कब आया" की आवाजे कानों में गूंजी, मै अचानक से चौंक गया पुन: वर्तमान में पहुंचा तो पता चला ये तो शांताराम गुरुजी के लड़के विलास की आवाज थी।वो आज कल इस हवेली में रहता है और देखभाल भी हो जाती है।उसके यहां उसी जगह बैठ कर खाना खाया ,जहां मै कला मामी के हाथ से बने स्वादिष्ट भोजन का रसास्वादन करता।वैसे पाक कला में लता मामी ,रेखा मामी, हमारी आई,राजश्री,संगीता,सुनीता, माई और कविता इन सभी का कोई हाथ नहीं रोक सकता।हमारे परिवार की एक खासियत रही है और वह है पढ़ाई।चार पांच डॉक्टर्स,तीन आईआईटीयंस,तीन सी.ए. व सी .एस.,एक साइंटिस्ट,बहुत सारे इंजीनियरओं , लेक्चरर्स से भरा पूरा ये परिवार है। सबसे मिलने के बाद मेरी कार बड़े भारी दिल से वापस राऊ (इंदौर) की और चल दी।
दिल करता है जल्द ही कोरोना की वैक्सीन निकल जाए और फिर से हम सभी सुरक्षित हो जाएं।तो एक बार पूरे ननिहाल परिवार का गेट टुगेदर हो । सुनसगांव पहुंच फिर से उन यादों के झरोखे से अपने बहुमूल्य अतीत को जी लें।इसी आशा के साथ मैं विराम लेता हूं।धन्यवाद।