विकास की दौड़ में,हो गया हूं मै अंधा,
प्रतियोगिता के इस चरम पर, पहुंच गया ये बंदा।
बुद्धि का हुआ जैसे जैसे विकास,
प्रकृति का किया वैसे वैसे सत्यानाश।
विकास की दौड़ में ,हो गया हूं मैं अंधा ।
रास्ता बदलने को किया मजबुर,
खिलखिलाती इन नदियों को किया,बहुतों से दूर।
जंगल काटे ,शहर बसाएँ, कईयों का आसरा छीन,
शांति की चाहत में ,जंगल पहुंच हो गया मै लीन।
विकास की दौड़ में, हो गया हूं मैं अंधा।
बुद्धि के बल पर,इस धरा की छाती पर,
तान दिए ये ऊंचे ऊंचे भवन,
कब तक इस बोझ को, करेगी धरा सहन।
शाकाहार छोड़ बना मै मांसाहारी ,
कितने ही पशु पक्षियों को बनाया मैंने आहार,
छीन उनकी आजादी,छोड़ दिया हमेशा के लिए सदाचार।
विकास की दौड़ में ,हो गया हूं मै अंधा,
प्रतियोगिता के दौर में ,पहुंच गया यह बंदा।