जिंदा हूं या नहीं, कुछ समझ ना पाया;
पहले की तरह फिर जीना चाहता हूं,
कमबख्त ये कोरोना,सरल होने नहीं देता;
जीने की राह को समतल बनाऊं,
लेकिन ये दुश्मन उसे होने नहीं देता;
कमबख्त ये कोरोना,जीने नहीं देता।
सोचा था जल्दी ही चला जाएगा,
परन्तु जाने का अब ये नाम नहीं लेता।
कितने ही बिछड़ गए, इस जहां से;
पास होकर भी दूर है,कुछ इस जहां में;
बिखर गए कितनों के सपने,बिखर गया घर संसार;
सोचा ना था ये कोरोना,बार बार बदलेगा व्यवहार।
बहुत हो गया अब ,उब चुका हूं इस व्यवहार से;
तंग आ गया हूं मै अब ,अपनों की लापरवाही से।
दोष उसे ना दूंगा मैं,दोषी होंगे सभी बेपरवाह;
मास्क ना पहना,हाथ ना धोया ,ना की अपनी परवाह।
अपने साथ घर ले आए उसे,बना दिया परिवार को निवाला उसका;
आखिर ये कोरोना कब जाएगा इस जहां से,या बना लेगा यहीं ठिकाना उसका।