कल कल बहती,किनारों से मिलकर,
बहुत कुछ समेटे,अपने साथ लेकर,
बारिश के आते ही,दौड़ती हूं खिलखिलाकर।
कभी मै रौद्र बन, किनारों को काटकर,
विनाश की ओर बढ़ जाती,मर्यादा को लांघकर।
इसमें ना कोई मेरा दोष,ना ही दोषी है बारिश,
है दोष केवल उसी का,जिसकी है बुरी साज़िश।
मुझे रखता है बांध,सीमा पर कर अतिक्रमण,
पर्वतों को काट,मुझे करने देता नहीं परिभ्रमण।
बरसात के जाते ही,अब नहीं रही सदानीरा,
प्रकृति से कर छेड़छाड़ ,अब तो रही मै क्षीण धारा।
स्वार्थी मानव ने आखिर,खत्म कर दिया मेरा वजूद,
प्रगति के नाम पर,अट्टहास कर रहा वो मरदुद।
अब मुझमें वो चंचलता, ना ही रही वो शीतलता,
ना रखी बाजुओं पे हरीतिमा,छीन कर मेरी मादकता।
फिर से खिलखिला , फिर बनी रहूं पावन सदा,
हे निर्लज्ज मानव कुछ कर ऐसा,बनी रहूं चिरयौवना सदा।