एक जीर्णशीर्ण वृक्ष के,
कटान की हो रही थीं तैयारियां,
आ गयी थीं कुल्हाडियां।
काटने वाले प्रसन्न ,
पर पेंड़ उदास था।
आगे क्या होगा?
उसे पूर्वाभास था।
राह गुजरती,
"हवाओं ने पूछा,
क्या बात है?
क्यों आंखें नम हैं?
पूरी उम्र तो जी चुके,
अब भी गम है?"।
वृक्ष बोला "तुम नहीं समझोगी।"
मैंने सदा,
सुकृती जीवन जिया है,
लोगों को छाया,फल,फूल,
देने हेतु,धूप,तपन,
गलन,पतझड़,सब
सहन किया है।
मैंने देखे हैं,
अपने सानिध्य में,
लोगों की प्रीतियां,
उनकी नज़दीकियां,
उनके उत्सव,
उनकी उमंग,
सुहागनों का,
विश्वास जिया है।
मेरी डालों ने,
कितनों को झूले झुलाये,
कान्हा ने खडे़ हो,
मधुर गीत गाये।
मैंने देखा है,
प्रभु को सिय खोज में भटकते,
मां को,
प्रभु वियोग में तड़पते।
बहुतों की,
भक्ति रस का पान किया है,
कभी अधर्म न किया है।
अब डरता हूं,
देव अभ्यर्थना करता हूं,
कि इंसान,
चाहे जो दिन दिखाये,
पर मुझसे कुर्सी न बनाये।
हवा ने पूछा "क्यों?"
मैंने तो सुना है,
कि उसमें नवाबी है,
कुर्सी मे क्या खराबी है?
मान है,सम्मान है"।
वह बोला "नहीं,वह बेइमान है।
बौद्धिक हीनता लाती है,
दृष्टि पंगुता छाती है।
इस पर आसीनों की,
मर जाती है लाज,मर्जाद,
संवेदनायें नहीं दिखतीं इसे,
किसी की विपदायें,
निरीह जनों के आंसू,
उनकी मजबूरियां,
उनकी बेबसी,
शहीदों के बलिदान की कीमत,
उनके आश्रितों की,
बिखरी जिंदगियां,
युवाओं के सपने,
मासूमों का भविष्य,
वतन की सुरक्षा,
औरत का मान,
कुछ नहीं दिखता इसे।
इसे आती है,
तो मौकापरस्ती,
बेइमानी,चालांकी,
धूर्तता,मक्कारी,
इसे चाहिये तो बस,
पैसा,पैसा,हाय पैसा।
हे देव,
सुन ले प्रार्थना,
पूरी कर अंतिम इच्छा,
तो प्राण प्रिय तर जायेंगे।
वरना सारे संचित कर्म,
मिट्टी में मिल जायेंगे।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'