अरी ओ मौत,
विलाप निवासिनी,
अधम,निर्लज्ज,
कितने देशभक्तों की,
बलि लेगी रे पिशाचिनी।
हंसती ,खेलती जिंदगियां,
तुझे रास आती नहीं?
बुलंद हौंसलों की गर्मियां,
तुझे पिघलाती नहीं?
ओ हिमतुहिन कणों ,
की झंझावती पवन,
आखिर कितने रूप तेरे?
अपने गरल पाश में,
जकडे़ अगनित सवेरे।
एक वह आजादी का दौर जब,
अगनित वीर ,तेरे अंक में समाये,
रोये फांसी के फंदे,
रंगहीन हुये तिरंगे।
सूखे समुद्र शोक में पर,
फिर भी प्राण तेरे,न अघाये?
प्रलयनर्तन तेरा,
है अनवरत जारी,
किस सिंहासन की स्पृहा?
किस राजतिलक की तैयारी?
क्या चाहती तू?कि,
तेरे लिये मंगल गीत गाऊं मैं?
तू आये तो,
राह में पुष्प बिछाऊं में?
नहीं गा सकेंगी,
कंठ स्वर केकियां,
उत्सव गान तेरे,
सुहागनों को अभागन करते,
कृत्य ये महान तेरे?
क्या दिखाना चाहती कि,
सर्वत्र तेरा आतंक छाया है?
यह तेरा दबदबा,
जिसके आगे कोई टिक न पाया है?
जा ढह जा,
उन धन पिपासों पर,
जो सत्ता मद में हैं झूलते,
स्वार्थ में अंधे हो,
निज कर्तव्य हैं भूलते।
नहीं दिखतीं जिन्हें,
बलिदानियों की कुर्बानियां,
नहीं दिखतीं जिन्हें,
निरीह जनों की परेशानियां।
शहीद होते हर बेटे का गम,
देशभूमि को साले है,
पर असीम उसकी सह्रदयता,
जो गद्दारों को भी पाले है।
अरे!नवजातों के,
स्वप्न भी चाहें कि हम भी,
वतन को आबाद करें,
नमकहराम सत्ताधारी,जो
सोचें कि कितना और,
कैसे बरबाद करें।
जा ढह जा उन पर,
वर्ना जा मर,
हट जा निगाहों से,
नज़र न आयें तेरी परछाइयां,
ओ प्राण पिपासिनी,
प्रिय तुझे भी अच्छाइयां?
ठंडे कर रिपु हौंसले,
फेर उनके अरमानों पर पानी,
किस काम आयेगी?
तेरी ये पागल जवानी।
ए काश!कि बस चले तो,
तेरा गला घोंट दूं,
या कि ले जा तुझे,
समुद्र दावानल में झोंक दूं।
भरे सावन को पतझड़?
और मुकुलों को गुमनामियां?
थरथराते कदमों को खाई,
युवा पल्लवों को वीरानियां?
जिनके हौंसलों के आगे,
नतमस्तक हिमालय,
सुन व्यर्थ न जायेंगे,
उनके बलिदान सुनहरे,
राह के दीपक बुझा ले,
पर रोक न सकेगी सवेरे।
प्रभा मिश्रा 'नूतन '