जहां चाहिए था आक्रोश जताना,
वहां बैठे बैठे सब सह जाना?
लाज लुट रही थी द्रौपदी की,
प्रतिज्ञा में बंधे बैठे रहे मौन?
न आते कृष्ण ,लाज बचाता कौन?
वहां न दिखाया आक्रोश,
उजड़ गयी गांधारी की कोख।
करते रहे विनती सागर से ,
पर वो जड़ था नहीं अनुनय उसने मानी,
तब आक्रोशित हो प्रभु ने ,
दंडि़त करने को उसको ठानी।
कहीं कहीं प्रार्थना से काम न चलता है,
हठी घोडा़ आक्रोश की ,
लाठी से ही चलता है।
शिशुपाल दंभी वो प्रभु को ,
गालियों पर गालियां सुनाता रहा,
एक सीमा तक प्रभु का धैर्य ,
बैठा बैठा मुस्कुराता रहा।
पर एक सौ एक गाली पर ,
छोडा़ सुदर्शन आक्रोश में भर।
चक्र छोड़ना उनकी मजबूरी था,
उस दंभी को सबक सिखाना जरूरी था।
जब गुलाम था वतन ,तब
वो प्रसन्न होते हमें प्रताडि़त कर,
तब आक्रोश ही रंग लाया था,
दीं देशभक्तों ने कुरबानी,
वतन आजाद कराया था।
फिर आवश्यक्ता है आक्रोश की,
पर बैठे सब उंगली रख मुंह पर,
निज स्वार्थ में अंधे हैं ,
चुप हैं सारी भ्रस्ट व्यवस्था पर।
तभी आतंकी हमें सताते ,
हमारी जमीं से हमें भगाते।
लहू की बहा रहे हैं नदियां,
हम चुप बैठे ,बीतें सदियां।
कब तक सोयें अब तो उठ जाना है,
इससे पहले देर हो जाय,
आक्रोश हमें दिखाना है।
सब मिल एक होकर,
आखिर कुछ कर जाना है।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'