मानवता को करता पददलित,
कलंकित,
भावनाओं की वेदी पर,
प्रज्ज्वलित,
ये आतंकवाद।
अतीव गहराई,
अनंत ये विष बेल,
जडो़ं को जड़ से,
मिटाने का खेल।
हथियारों से आतिशबाजियां,
लहू से होली का मेल।
करके शर्मसार,
अमर्यादित जो नित अभिसार।
एक वर्ग विशेष से द्वेश,
या विभात के अरि,?कैसा आनंद,
छोंड़ चीखों ,विलापों के अवशेष।
अकल्पनीय,निंदनीय,
मानसिकता के धरातल पर,
नींव विध्वंस के अध्याय की।
क्या यही परिभाषा?,
सभ्यता के पर्याय की,
होंगे कुपित,पूजो जिन्हें,
उनका भी भय नहीं?
इतना संकुचित ह्रदय कि,
मिले प्रेम,सद्भावना को प्रश्रय नहीं?
क्या चीखें मासूमों की,
कानों से टकराती नहीं?
या कि भय से भयभीत हो,
पास तुम्हारे आती नहीं।
क्या दृष्टि दुर्बल कि,
दिखें आंसुओं के सैलाब नहीं?
या कि करुणा से,
कभी रहे बेताब नहीं।
वो निराश्रितों,असहायों,
बेबसी भरे चेहरों की,
खोमोशियां झकझोरती नहीं?
वो वीरानियां,
सिसकती अधूरी कहानियां,
मनस्थल को तोड़ती नहीं।
हो उसी मृदा के,जिसके सब बने,
किया उसने कुछ भेद कभी?
डाल गये वो फूट की हड्डियां,
उसी पर जूझो अभी भी,
इतना आकृष्ट आक्रंदन पर कि,
सोचा कभी मरोगे जब,
कौन रोयेगा?आलिंगन कर,
सुधरो ,इससे पहले कि,
मृदा और मौत भी न निगले तुम्हें,
जो हुआ उसपर पश्चाताप कर,
शोक कर,अशोक बनो,
नर हो नर का सम्मान कर,
सुकर्म कर अमर बनो।
प्रभा मिश्रा 'नूतन '