मेरी ये रचना तब की लिखी है जब एक बार माननीय प्रधानमंत्री जी विदेश गये थे और वहां कुछ चर्चा मां की चली थी और वो अपनी मां को याद कर भावुक हो गये थे और उस पर भी सियासत हुयी थी।
तब मैंने ये रचना लिखी।
रोया था देखो वो,
मां को याद कर।
उस विवशता पर,
उस त्याग पर,
असीमित उस प्यार पर,
मां ने जो किया,जो दिया,
हर उस फर्ज,
और व्यवहार पर।
पर 'उन्हें'कहाँ भला ?
बात समझ आती है।
उनकी प्रज्ञा जो ,
पंक से भरी हुयी,
सत्य और शुद्ध,
हर विचार से डरी हुयी।
'उन्हें' उनके हर कार्य में,
आचार और व्यवहार में,
हंसने व रोने में,
मैल गंगा का धोने में,
साफ और सफाई में,
वस्त्र सिलाई ,पहनाई में,
जाने पर विदेश में,
हर किये निवेश में,
हर योजनाओं में,
हर इच्छाओं में,
बोलने की शैली में,
उनकी हर रैली में,
सिर्फ और सिर्फ ,
राजनीति नज़र आती है।
कितने बौने विचार हैं,
क्या करें वो भला,
पीढि़यों ने दिये जो,
वही कुसंस्कार हैं।
जिस माहौल में पडे़,
उसी में पले,बढे़,
भावना का अर्थ,
किसी के पल्ले कहाँ पडे़?
एक हटे,दूजा चढे़,
देश बढे़ ना बढे़,
उनको क्या है वास्ता?
खुद की जेब से जुडे़,
उचित वही है रास्ता।
चाभी वाला वानर मौन
चाभी वाला वानर मौन,
गद्दी पर बैठा दिया,
चाहा जितना बस उतना,
इशारों पर नचा दिया।
साल दस झेले,
पर कोई कहाँ तक खेले?
नज़रों की गद्दी से ,
सबने उन्हें हटा दिया।
बहुत खेल रच चुका,
देश अब जग चुका,
उगा वो सूर्य है,
पहुंच से कोसों दूर है।
व्यर्थ अपशब्द सब,
कर कुछ न पाओगे,
चुप बैठो,मौन धरो,
वरना बचा खुचा ,
मान भी गंवाओगे।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'