स्तब्ध हुयीं दिशायें,
भयभीत ये गगन है,
छली गयी धरा जो,
घन कर रहा रुदन है।
संत्रस्त हुयीं करणें,
व ठहरी हुयी पवन है।
वातावरण है बोझिल,
उजडा़ मन चमन है।
मर्मघ्न ये मनुज जो,
चुनते कुपंथ काले,
सहमीं सभी हैं सांसें,
शिशु बन रहे निवाले।
प्रतिशोध के कुहासे,
ये शर्वरी के हैं प्यासे।
मनुष्यता से पतित हैं,
कौन,जो इन्हें संभाले?
दुखित सारा जहां है,
दीनानाथ तू कहां है?
मत और करा प्रतीक्षा,
व्याकुल सभी नयन हैं।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'