मत अंधे हो उलूक सम,
मत चीखो काले काग जैसे,
जानती हूँ,
बहुत ज्यादा है पीर,
क्योंकि बरसों की संचित,
तुम्हारी 'कालिमा 'को चीर,
'वो 'उदय हो फैला रहा,
शनैः शनैः वतन के गगन पर,
विकास रश्मियां।
परत दर परत,
छाये धुंध को काटकर,
दूर कर रहा है अँधेरा।
हो रहा है नव सवेरा।
जग रहे लोग,
मुस्कुरा रहे हैं।
एक दूसरे को जगा रहे हैं।
मत मंड़राओ,
चील की भांति,
लोगों के मनः आसमां पर,
कि सब जान चुके हैं,
तुम्हारी सारी क्रूर हकीकतें,
नहीं मानेगा कि कोई,
तुम्हारी चिकनी चुपडी़ नसीहतें।
मत बिछाओ जाल,
लालची बहेलिये की भांति,
कि तुम्हारे,
मिथ्या वादों के दानों में,
अब कोई न फंसेगा।
मत उडा़ओ 'उसका 'उपहास,
कि जग तुम पर ही हंसेगा।
मत छटपटाओ,
मीन की तरह,
कि नीर मुख मोड़,
तुम्हें न चुनेगा।
देखो,
उपज रही है शांति,
मिट रही है भ्रांति।
विकसित हो रहा है विश्वास,
जग रही है नव आस,
मिट रहे भेदभाव,
बढ़ रहा आपसी लगाव,
एकसूत्रता की डोर थाम,
जुड़ रहे हांथों से हाथ,
धैर्य धर ह्रदय से,
सब दे रहे हैं 'उसका ' साथ।
कि मत जिद करो,
नन्हें शिशु की भांति,
और चुपचाप मान लो,
कि 'उसकी'विजय हो चुकी है,
युद्ध समाप्ति से पहले।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'