आजादी के सूरज के बाद,
फिर उगा एक और सूरज,
शनैः शनैः बढ़ता हुआ,
निज चरित्र को गढ़ता हुआ।
जिज्ञासु,ज्ञान पिपासु,
त्याग कर अपने परिकर,
साधा स्वयं को तप कर।
निखार कर निज व्यक्तित्व पंकेज,
आभासित हुआ,
संसार व्योम पर।
स्वयं होकर परिख्यात,
बना प्रणोदक,प्रतिबोधक।
रजनी का कर कंदन,
उभरा बन कर तमहर।
कर रहा प्रयत्न,
लाने को पुनर्जागरण,
अब तो,
संकीर्णता की चादर छोडो़,
अब तो,
अपनी आँखें खोलो।
किस बात का इतना भय?
कब तक रहोगे रजनीचर?
कूपमण्डूकता से बाहर निकलो,
कुछ तो भला स्वयं को बदलो।
वह कर रहा प्रयत्न,
भारत का भाग्य चमकाने का,
प्रबल आवश्यक्ता है,
एकजुट हो जाने का।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'