यदि मुझे ब्रह्मास्त्र मिले,
खुशी खुशी वरण करूँ,
धारण कर रौद्र रूप,
चलूं कुछ हत्यायें करूँ।
काटूं शीश उस सोच का,
जिसमें देशद्रोह का वास है,
किसी तरह विनाश हो,
पनप रही आस है।
करूँ नाश उस चिंतन का,
जो चढ़ बैठता जुबान है,
जो दे पहचान,
उस भारत का अपमान है।
काटूँ कटि उस अभाव की,
जो विपन्नता का निवासी है,
अनावृष्टि झेलते,जिनकी
आँखों में उदासी है।
काटूँ कर उस मानसिकता के,
जो स्वयं कुछ ना करें,
जो आगे बढ़ विकास करे,
उसका पायें सर्वनाश करें।
समूल नाश उस दैत्य का,
जो आतंक का पर्याय है,
वक्त की पुकार यही,
बस यही एक उपाय है।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'