फिर रंगने लगे
हैं अखबार।
फिर पैनी कर,
जिव्हा की धार,
अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता की ,
ढा़ल लेकर,
अपशब्दों
के हो रहे ,
परस्पर वार।
फिर सज रहे ,
लुभावने वायदों ,
के बाजार।
फिर स्वयं को,
सर्वश्रेष्ठ ,
दिखाने की होड़,
फिर कृत कर्मों ,
का प्रस्तुत हो रहा निचोड़।
फिर हमको,
बनाया जा रहा ,
शीश का ताज,
फिर लच्छेदार ,
भाषणों से ,
भरमाया जा
है हमें आज।
फिर सौगातों ,
की बंट रहीं रेवडि़यां,
फिर एडी़ चोटी ,
का लग रहा जोर,
फिर छिडी़ रार मध्य,
हो रही कोलाहल ,
वाली भोर।
प्रतीत हो रहा है,
अपने प्रदेश में ,
फिर आ रहे हैं चुनाव।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'