फिर रच रहा है चक्रव्यूह,
मद में पड़,मत कर्तव्यों से भाग,
जाग ,अर्जुन जाग।
मत मरने ,मिटने दे,
सुख,सुकून,समृद्धि के अभिमन्यु को।
मत हावी होने दे,
बरसों की उसी दासता को।
परदेसियों को अपनाने में,
रह न जाय वंचित तू,
माँ भारती को बचाने में।
देख कहाँ हुयीं त्रुटियाँ?
कितनी और कौन- कौन?
मत अवसर दे बोलने का,
उन्हें,जो अब तलक थे मौन।
समझ अहम मत (वोट बैंक)नहीं,
अहम है कोई तो स्वदेश,
मत अपनी साख गिरा,
पतित नरेश को दे प्रवेश।
मद में लिप्त हो,
न कपोल कल्पनायें बुन,
दम्भ में पड़,
न हर ऐरे गैरै को चुन।
समझ है यही सुअवसर कि,
हो निर्माण,प्रभु प्रासाद का,
पधारें राम निज गेह में,
हो पूरा समय वनवास का।
इससे पहले कि हो जाय,
बहुत बहुत विलम्ब,
और कीच चढ़ शीश,
करे नृत्य भर उमंग,
संभल,हो जाने दे फिर,
पुनर्जागरण की नव क्रांति,
कर ले प्रायश्चित,
प्राणवायु के अभाव में,
मृत उन बच्चों को दे शांति।
नहीं,इतिहास स्वयं को,
अब फिर न दोहराये,
इस बार अभिमन्यु,
न बलि चढ़ने पाये।
नहीं,
इस बार नहीं।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'