झंझावतों ,तूफानों बीच,
कैसे दीया जलाऊं मैं?
आलस्य और मद में सोये जो,
उन्हें कैसे जगाऊं मैं?
धर्म,आस्था ,मर्यादा सब,
खडी़ अपने गंतव्य पर,
नैतिकता और पवित्रता,
साथ जाने को तत्पर,
खडी़ हुयी किंकर्तव्यविमूढ़,
उन्हें कैसे मनाऊं मैं?
शक्तियां थककर चूर हुयीं,
और धैर्य जवाब दे रहा,
' वो ' बंधन में जकडी़ पुकार रही,
उसे कैसे छुडा़ऊं मैं?
परजन दुर्जन उनको झेलूं,
अपने दुश्मन,होली खेलूं?
किस-किस का लहू बहाऊं मैं?
हमारी कमजोरी और आपसी फूट,
जो इतने समय तक गुलाम हुये,
हर सर झुके घुटनों तक,
हर हाथों सलाम हुये।
वो आजादी को फांसी झूले,
इतनी जल्दी देखो सब भूले,
किस-किस को याद दिलाऊं मैं?
घने अँधेरों ने साजिश सानी,
तन का लहू आँखों में उतरा,
आँखों की शर्म बनी पानी।
अर्थ और सत्ता की पिपासा,
फैल रहा पतन का धुवां सा,
अपने जन से जलता वतन,
कैसे आग बुझाऊं मैं?
हर किसी का अलग चिंतन,
एक हों सब ,जुडे़ बंधन
वो सूत्र कहाँ से पाऊं मैं?
झंझावत और तूफानों बीच,
कैसे दीया जलाऊं मैं?
प्रभा मिश्रा 'नूतन'