बावरा मन देखने ,
चला एक सपना,
कि फिर से रामराज्य,
वाला वतन बने अपना।
फिर हर पिता हो दशरथ सा,
हर मां हो कौशल्या ।
हर पुरुष हो भरत सरीखा,
हर नारी सीता हो ,कोई
न हो ऐसी जिसको,
बनना पडे़ अहिल्या।
पर इस बार हो वन गमन,
हर अत्याचारी का,
सबको उचित न्याय दें प्रभुवर,
उपचार हो हर बीमारी का।
न हो कोई इस बार ,
जड़ सागर सा ,जिस पर
बांधना पडे़ सेतु,
न बहाना पडे़ निर्दोष लहू,
फिर किसी युद्ध की ,
विभीषिका के हेतु।
सर्वत्र बिखरे सुख,शांति,
चैन ,कीर्ति,प्रीति,
भक्ति करें सब निष्काम,
फिर बने वतन अपना,
सुरक्षित,सुशोभित,समृद्धि,
सुकीर्ति ,सुखधाम।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'