तत्कालीन रचना
बिसाहडा़ में हर कोई खडा़,
सेंके सियासी रोटियां,
कोई कहे थीं जरूर,
कोई कहे ना हुजूर,
गाय की न बोटियां।
झूठी सहानुभूति के लगता,
पडे़ हर किसी को दौरे,
जिसको देखो वो ही,
दौरा करने दौडे़।
लक्ष्मी की गठरी पकडा़कर,
खुद को दूध का धुला बताकर,
औरों को निकृष्ट जताकर,
मुद्दे को बढा़ -चढा़ कर,
शुरू हो जाती ,
सबकी राजनीति सारी,
वाकई नेताओं की थाह अनंत,
बेशर्मी की सारी हदें,
इनके आगे झुकीं बेचारी।
प्रभा मिश्रा 'नूतन '