आधुनिक महाभारत ,
से त्रस्त भारत,
रो रहा है,
अपनी दुर्दशा पर।
वो महाभारत जिसमें,
कुरुक्षेत्र है ,
कभी लोक सभा,
कभी राज्य सभा,
कभी विधान सभा,
कभी चुनावी रैलियां,
तो कभी जनसभा।
चलाते सब शब्दबाण,
कुत्सित बुद्धि का परिचय देकर।
वो महाभारत जिसमें,
हर आतंकवादी और,
हर वो नेता है शकुनि,
जो नित प्रयासरत,
कुचक्रों,कुप्रयासों से,
लोगों को घायल कर,
देश को बदनाम कर।
वो महाभारत जिसमें,
एक सद्पुरुष बढा़ उभरकर,
वही अर्जुन,वही धर्मराज,
वही गंगा पुत्र,वही अभिमन्यु,
जो निरंतर प्रयत्नशील,
भारत का विकास करने पर,
हर षड़यंत्र सहकर,
और गठबंधन से हारा,
लोगों की,संकीर्णता की वजह बनकर।
वो महाभारत जिसमें,
विवेक है गुरु द्रोण,
कौरव बढ़ते जिसे नज़र अंदाज़ कर।
जिसमें विदेशी माई,
है शिखंडी जो,
सक्रिय हर घटना पर,
रहती ,अहम भूमिका अदा कर।
जो महाभारत जिसमें,
हर वह मानसिकता है गांधारी,
जो सत्य पर नयन मूंदकर,
सब सहती है चुपचाप रहकर।
और धरा है कुंती,
जिसके हैं सब पुत्र,
कैसे जिये भेदभाव कर?
वो महाभारत जिसमें,
सबके पास हैं आत्मदेव श्री कृष्ण,
जो जीवन रथ के सारथी,
पर कौरव प्रसन्न,
मन कर्ण ,से रथ हंकवाकर।
वो महाभारत जिसमें,
हर वह जनता है एकलव्य,
जो जीती है अपने,
आशान्वित नेता के गुणों पर चलकर।
वो महाभारत जिसमें,
कौरव हर नैतिकता को,
भेजकर अज्ञातवास,
साठ सालों तक ऐश किये,
जनता की भावनाओं,
को जुए में हराकर,
उनका मत हरकर।
पर अब तिलमिलाये हैं,
सब छिन जाने पर,
करते हर संभव प्रयास,
उन्हें बदनाम करने का,
लोगों को खिलाफ भड़काकर,
खुद को दूध का धुला दिखाकर।
वो महाभारत जिसमें,
समय बना यक्ष,
खडा़ है समक्ष,
अपने सवाल लेकर,
कि कब तक जियोगे,
चुप रहोगे ,ये सब सहकर।
क्या फिर जीना गुलाम होकर?
यदि नहीं तो उठो,
जागो,हुंकार भरो,आगे बढ़ प्रण करो,
कि ये भाग्य अब बदलना होगा,
सबको मिलकर युद्ध लड़ना होगा,
चक्रव्यूह में,
अब अभिमन्यु नहीं,
कौरवों को ही मरना होगा।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'