घने घृणित राजनीतिक तम के बीच,
पिघल रहा है सच
जल रहा है भविष्य
सोई मानवता का लाभ उठाकर,
हावी होता आतंक
इन सबके बीच में,
अपना वजूत तलाशती सभ्यता।
करवटें लेता वक्त,
कर रहा है चिंतन मनन,
कैसे मिटे ये अंधियारा?
ना जाने कितने दीपक जले,
जलकर बुझ भी गये,
पर कर न सके,
जागरूकता का उजियारा।
विकास के नाम पर,
हुये कितने ही तमाशे,
पर फैलता ही गया,
पतन,बुराईयों का कचरा सारा।
सालों तक किसी ने,
🖐से साफ किया,
क्या(ये पब्लिक है ,सब जानती है)
कोई जुटा झाडू़ लगाने में,
कोई लगा🚴♂दौडा़ने,
और ले आया पीछे,पीछे,
अराजकता के स्वान।
तो कोई सूरज बन जुटा,
लोगों के चेहरों पर,
कमल खिलाने में।
इन सब का परिणाम?
किसको चिंता है?
सब जानते हैं कि,
पिसती अंत में
सिर्फ जनता है।
प्रभा मिश्रा 'नूतन '